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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरा रास्ता एक सुन्दर जलमार्गसे होकर पड़ता था, जिसके दोनों ओर हरे-भरे पेड़पौधोंकी, मुख्यतः ताड़ोंकी भरमार थी। मैंने दक्षिणमें कन्याकुमारीतक यात्रा की जहाँ सागर प्रतिदिन भारत माताके पग पखारता है। यात्रा करते हुए मुझे लगता था कि मैं एक सुन्दर और सुनियोजित उद्यानके इस छोरसे उस छोरतक यात्रा कर रहा हूँ। त्रावणकोर ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ थोड़ेसे नगर और बहुत सारे गाँव हों। वह तो पूराका-पूरा एक बड़ा विशाल नगर जैसा लगता है जिसकी आबादी ४,००,००० है। और जिसमें स्त्री और पुरुषोंकी संख्या लगभग बराबर-बराबर है। सारा प्रदेश छोटे-छोटे फार्मोंमें बँटा हुआ है जिनमें छोटे-छोटे सुन्दर घर बने हुए हैं। अतः यहाँपर भारतके अन्य गाँवों-जैसी--जहाँ खुली भूमि और खुले वातावरणके बावजूद मनुष्य और पशु थोड़ेसे स्थानमें ही ठुँसे रहते हैं--कुरूपता नहीं थी। यह कहना कठिन है कि मलाबारके लोग इन दूर-दूर स्थित छोटे-छोटे घरोंमें रहकर भी लुटेरों और वन्य-पशुओंसे अपनेको किस प्रकार सुरक्षित अनुभव करते हैं। मैंने तो यही अनुमान किया कि यहाँके स्त्री और पुरुष अवश्य ही बहादुर होंगे। मैंने इस सम्बन्धमें जिनसे पूछा वे भी इस अनुमानका समर्थन करनेके अलावा और कोई कारण नहीं बता सके।

स्त्रियोंका दर्जा

भारतमें औरतोंको उतनी आजादी और कहीं नहीं है जितनी कि मलाबारमें है। स्थानीय कानून और प्रथाओंमें उन्हें समुचित संरक्षण प्राप्त है। स्त्रियोंमें त्रावणकोर जितनी शिक्षा भी और कहीं नहीं है। शिक्षाको दृष्टिसे तो त्रावणकोर वस्तुतः भारतका सबसे उन्नत प्रदेश लगता है। वहाँ १९२२ में हजारमें २४४ लोग साक्षर थे; पुरुषोंमें ३३० और स्त्रियोंमें १५०। उनकी साक्षरोंकी यह संख्या पुरुषों और रि दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस आश्चर्यजनक प्रगतिमें पिछड़े वर्गोंके लोग भी पूरा हिस्सा ले रहे हैं। यह प्रगति तो मुझ-जैसे शंकाशील व्यक्तिको चिन्तित कर देती है। यदि इस तमाम शिक्षाका मतलब अपने समूचे परिवेशसे असन्तोष, अतीतसे सम्बन्ध विच्छेद और भविष्यके प्रति निराशा, और रोजगारके लिए छीना-झपटी हो तो निश्चय ही यह पूराका-पूरा सुन्दर भवन किसी भी दिन अचानक ढह जायेगा। जिसमें हृदय और हाथको समुचित प्रशिक्षण न मिले, ऐसी कोरी साक्षरता मेरी दृष्टिमें निःसार है। अतः आवश्यकता इस बातकी है कि जैसे-तैसे दी गई शिक्षाके बजाय ऐसी शिक्षा देने के लिए जोरदार कदम उठाया जाये, जिसकी योजना विभिन्न घंधोंकी दृष्टिसे की गई हो और जिससे उच्च शिक्षा प्राप्त लोगोंके लिए सरकारी नौकरीकी इच्छा करना जरूरी न रह जाये, बल्कि वे अपने जीवन-यापनके लिए खेती-बारी या बुनाई-जैसा कोई काम कर सकें। जबतक विद्यार्थियोंका रुझान जीविकोपार्जनके मुख्य और स्वाभाविक साधनोंकी ओर नहीं किया जाता और जबतक उनके मस्तिष्कको भारतकी विशेष दशाओंके अनुरूप वैज्ञानिक दृष्टिसे विकसित नहीं किया जाता तबतक शिक्षित वर्ग और जन-साधारणके बीचकी खाई बढ़ती ही जायेगी और शिक्षित वर्ग जनसाधारणकी तरह जीवन-यापन करने, उनका हित-साधन करने और उनके जीवनको मधुर बनानेके बजाय उनके ऊपर भार बनकर रहेगा।