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७. भाषण: भुवासणमें

१८ जनवरी, १९२५

आदमी सोचता क्या है और करता क्या है? मैं मेरे और आपके दुःखकी बात नहीं सोचना चाहता। हमने बारडोलीकी मारफत हिन्दुस्तानका बहुत-सा काम करनेकी बात सोची थी। [१]किन्तु आदमी कितना विचार करता है और भगवान उसमें से कितना पूरा करता है, इसे कोई नहीं जानता। हम तो उसके हाथकी कठपुतलियाँ हैं।

मैं दो-चार मोटी-मोटी बातें कहूँगा। आप लोग खूब कातते थे और धुनने में दिलचस्पी लेते थे। आपके बीच शंकरलाल बैंकर रहते थे। अभी भोजन करते-करते मैं उनसे पूछ रहा था कि जब तुम यहाँ रहते थे, तब तुम्हारी यहाँ क्या स्थिति थी। उन्होंने कहा कि आप सब लोग उनसे कहा करते थे कि "और कुछ भी क्यों न हो जाये, किन्तु खादीका मन्त्र हम समझ गये हैं। हम अच्छेसे-अच्छे बीज बोकर कपास पैदा करते हैं। हमें उसकी जानकारी है और हमारे पास समय भी है। तब फिर हम अपना कपड़ा स्वयं क्यों न तैयार करें?"

यह अच्छी बात है। मैं तो यह भी चाहता हूँ कि बारडोली ताल्लुका जिस अन्नके सम्बन्धमें स्वावलम्बी है, उस तरह वह वस्त्रके सम्बन्धमें भी स्वावलम्बी बन जाये और बारडोलीके बच्चे, स्त्री और पुरुष आलसी होनेके बदले उद्यमी बनें। ऐसा नहीं है कि जो लोग ईश्वरकी कृपासे पैसेवाले हो जाते हैं। उन्हींको उद्यमी होनेकी जरूरत है। जो बिलकुल कमजोर हैं यदि उनके पास भी कोई छोटा-मोटा उद्यम हो तो यह एक अच्छी बात है। यह कहावत बिलकुल सच है कि "नवरो बेठो नख्खोद वाळ"[२]। कातने, धुननेका काम करके हम अपनी स्थिति सुधार सकते हैं और भुखमरीकी हालतको समाप्त कर सकते हैं। सम्भव है, आप जैसे लोगोंको भूख किस चिड़ियाका नाम है, सो मालूम न हो, किन्तु कालीपरजों या दुबलोंके लिए यह एक वस्तुस्थिति है। उनकी हालत लगभग पशुओं जैसी है। जिनके पास जमीन है, उनकी स्थिति शायद अच्छी हो, किन्तु इनमेंसे जो लोग सफेदपोशोंकी चाकरी बजाकर अपना पेट भरते हैं, अगर आप उनकी आँखोंको गौरसे देखें तो लगेगा कि उनकी हालत अच्छी नहीं है। मैंने एक गाँव में ऐसे बहुतसे-दुबलोंको देखा।

मैं किसीसे यह नहीं कहता कि फिलहाल तुम्हें जेल जाना है। केवल दयालजी[३], वल्लभभाई और मुझे जेल जाना पड़ सकता है; और सो भी आज नहीं। इसका सबब यह है कि सन् १९२१ में जो नीति निश्चित हुई थी, उसके अनुसार हरएकको

 
  1. १९२२ में सरकारकी खिलाफत, पंजाब और स्वराज्य सम्बन्धी नीतिसे विरोध प्रकट करनेके लिए यहाँ सबसे पहले सामूहिक सविनय अवज्ञा करनेका फैसला किया गया था।
  2. निठल्ला अपनी जड़ खोदता है।
  3. दयालजी देसाई; सूरतके एक सार्वजनिक कार्यकर्ता