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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पूछता हूँ कि इस मामलेमें ईसाई लोग आगे नहीं आयेंगे तो फिर कौन आयेगा? ईसाइयोंसे ऐसा आग्रह करनेका मतलब यह नहीं है कि मेरा यह आग्रह हिन्दुओं या मुसलमानोंसे नहीं है। परन्तु ऐसे मामलोंमें सबसे पहले तो सबसे सबल पक्षसे ही अनुरोध किया जाना चाहिए।

अनुपगम्यता

मैं जिस समस्याके सिलसिलेमें त्रावणकोर आया हूँ, मैंने उसकी चर्चा अन्तमें करना सोच रखा था। मैं इस बारेमें लिखते हुए अवश्य ही झिझकता रहा हूँ। मेरी यवावस्था सामाजिक दायित्वकी भावनाके विकासकी आयु देशसे बाहर ही बीती है। देश लौटनेपर में लगातार ऐसे कई कामोंमें उलझा रहा कि मुझे दूसरे किसी कामकी ओर नजर उठानेका मौका ही नहीं मिला। इसलिए मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं भारतीय जीवनकी कई ऐसी बातोंसे सर्वथा अनभिज्ञ हूँ, जिनका जानना मेरे लिए उचित था। वैसे मोटे तौरपर मैंने सुन रखा था कि त्रावणकोर एक प्रगतिशील राज्य है, परन्तु इसने कुछ दिशाओंमें जो आश्चर्यजनक प्रगति की है उसकी मझे कोई जानकारी नहीं थी। साथ ही मैं उसके अनुपम प्राकृतिक सौन्दर्यके बारेमें भी कुछ नहीं जानता था। लेकिन जब मैंने अपनी आँखोंसे यह देख लिया कि यह राज्य कैसा है, इसके शासक और दीवान कैसे सुसंस्कृत हैं, फिर भी यहाँ पंचमवर्णकी अनुपगम्यताकी समस्या मौजूद है तो यह देखकर मुझे असीम आश्चर्य हुआ और मैं हतबुद्धि-सा हो गया। जिस राज्यमें ऐसी महारानी और ऐसे दीवान और ऐसी सुशिक्षित जनता हो उस राज्यमें ऐसी अमानवीय प्रथा कैसे मौजूद है और चल रही है? मैं यह नहीं समझ सका और आज भी नहीं समझ पा रहा हूँ। यदि सत्याग्रह न छिड़ा होता, तो बाहर किसीको इसका गुमानतक न होता। लेकिन चूँकि सारी बात नग्न रूपमें सभीके सामने आ गई है, इसलिए मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि मैं इसके निवारणके लिए अधीर हो उठा हूँ। मेरी अधीरताका कारण यह है कि मैं हिन्दू हूँ, यह राज्य एक हिन्दू राज्य है, इसका दीवान हिन्दू है, इसके लोग सुशिक्षित हैं और सभी इसे बुराई मानते हैं। यदि यहाँ ब्रिटिश सरकारका शासन होता तो वह चाहती तो कह सकती थी कि सरकार इस मामलेमें तटस्थ है। परन्तु यहाँ चूँकि हिन्दू सरकार है और जहाँतक मैं समझता हूँ वह इस मामलेमें, और ऐसे अन्य मामलोंमें भी, ब्रिटिश सरकारके अधीन या उसके प्रभावमें नहीं है, इसलिए वह तटस्थताकी बातको न तो दलीलके रूपमें पेश कर सकती है और न उसका दावा ही कर सकती है। सरकारको तो सुधारके पक्षका समर्थन और धर्मान्धता-भरी रूढ़िवादिता या अन्धविश्वासका विरोध करना ही चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे वह लुटे हुए लोगोंका पक्ष लेती है और लुटेरोंको कठोरतासे दण्ड देती है। प्रत्येक हिन्दू राजा हिन्दू धर्मकी मान-प्रतिष्ठाकी रक्षाके लिए उत्तरदायी है और उसका कर्त्तव्य है कि वह उसे बाह्य आक्रमणसे और आन्तरिक भ्रष्टता और विच्छिन्नतासे बचाये। हिन्दू धर्म में जो दोष धीरे-धीरे आ गये हैं वह उन्हें बिना किसी कठिनाईके दूर कर सकता है और यदि कठिनाई हो तो उसका सामना भी कर सकता है। इसलिए महारानी साहिबा और दीवान बहादुरने