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२२२. संगसारीकी सजा


अहमदिया पंथके कुछ लोगोंको जो संगसारीकी सजा[१] दी गई है, उसपर मैंने एक छोटी-सी टिप्पणी[२] लिखी थी। उसके सम्बन्धमें मुझे बहुतसे पत्र मिले हैं। मैं उन सब पत्रोंको तो प्रकाशित नहीं कर सकता; लेकिन जितनेसे उन पत्रोंमें आये हुए विचार पाठकोंको मिल जायें उनका उतना अंश यहाँ दे रहा हूँ।[३]इस विषयमें मौलाना जफरअली खाँका कहना यह है:

...'कुरान' में किसी भी गुनाहके लिए संगसारीकी सजा नहीं बताई गई है। आपन 'कुरान' में वह बात भी लिखी मान ली है जिसका कोई आधार नहीं है।...लेकिन आपको नीतिको दृष्टि से जो सजाएँ अग्राह्य है, चाहे उनका विधान 'कुरान' में और दुनियाके अन्य धर्मग्रन्थोंमें भी क्यों न हो, उन्हें अमानुषिक मानकर उनकी निन्दा अवश्य की जानी चाहिए। 'कुरान' में व्यभिचारके जुर्ममें बेत लगानकी और चोरीके जुर्ममें अंग-विच्छेद करने की सजाएँ बताई गई हैं। चूँकि ये सजाएँ "अन्तरात्माको आघात" पहुँचाती हैं, इसलिए उसका अर्थ यही होता है, कि 'कुरान' को, जो इस्लामी कानूनका मूल स्रोत है, गलतियोंका जखीरा ही मान लिया जाये। इस्लामके सहानुभूतिहीन आलोचकोंने, जिनसे हम अच्छी तरह परिचित है, ऐसी अमर्यादित बातें कही होती तो मैं उनकी कुछ भी परवाह न करता। लेकिन आपकी स्थिति भिन्न है। आप कांग्रेसके प्रमुख होनके नाते तीस करोड़ भारतीयोंके नायक हैं और वे आपसे यह आशा रखते हैं कि आप उनके धार्मिक विश्वासोंका आदर करेंगे। खिलाफतके सबसे बड़े समर्थक 'महात्मा गांधी' को आज करोड़ों मुसलमान अपना मार्गदर्शक, विचारक और सच्चा मित्र मानते हैं। ऐसी हालतमें यह नितान्त अनपेक्षित था कि शरीयतमें जिस सजाका उल्लेख किया गया है, आप उसकी इस प्रकार खुली निन्दा करें। मजहबी मामलों में मुसलमानोंकी भावनाएँ बहुत नाजुक होती हैं। वे आपके इन विचारोंको अपनी मजहबी बातोंमें, जो उनका निजी मामला है, व्यर्थका हस्तक्षेप मानते हैं। इस्लाम अपने नियमोंको तोड़नेवाले अनुयायियोंको जो सजाएँ देता है उनके नीति-सम्मत होनके सम्बन्धमें आप खुद जो चाहे मानने के लिए स्वतन्त्र हैं, लेकिन इस्लामी धार्मिक कानून के निर्माताकी तरह इस प्रकार अपना अभिमत प्रकट करनेसे आपकी सम्मानपूर्ण

१. काबुलमें।

२. देखिए "टिप्पणियाँ", १२-३-१९२५ के अन्तर्गंत उपशीर्षक "संगसारी 'कुरान' में नहीं है।"

३. अंशत: उद्धृत।