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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कार्यका समर्थन चाहे "पैगम्बरके व्यवहार" से किया जाता हो, चाहे "इस्लामी दुनियाके सामूहिक निर्णय" से; लेकिन जबतक वह इस्लामी आचरणका एक अंग है तबतक मेरे-जैसे बाहरी आदमीके लिए तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ सकता। मैं यह चाहता हूँ कि मेरे मुसलमान मित्र ऐसे कार्योंकी, जिन्हें संसारके बुद्धिमान मनुष्यताके विरुद्ध मानते हैं, बिना किसी हिचकके निन्दा करें, फिर चाहे उनका मूल स्रोत कोई भी क्यों न हो। इसलिए मुझे यह देखकर बड़ी खुशी होती है कि मौलाना सफदर और ख्वाजा कमालुद्दीन संगसारीकी सजाकी और मुर्तदोंको मौतकी सजा देनेकी पूरी निन्दा करते हैं। मैं तो यह चाहता हूँ कि वे मेरी तरह ही यह भी कहें कि यदि संगसारीकी सजा पैगम्बरके व्यवहारसे अथवा "इस्लामी दुनियाके सामूहिक निर्णयसे" जायज साबित भी हो सके तो भी, चूँकि वह मानवताकी भावनाके विरुद्ध है, वे उसका समर्थन न कर सकेंगे। मौलानासे मेरा कहना है कि वे "इस्लामी दुनियामें मेरी इज्जत" की फिक्र न करें। इस्लामके नामपर जिन कार्योंका समर्थन किया जाता है, उनके बारेमें मैं अपनी प्रामाणिक राय जाहिर करूँ और उससे उनके दिलसे मेरी वह इज्जत चली जाये तो उस इज्जतकी दमड़ी-बराबर भी कीमत नहीं है। लेकिन सच बात तो यह है कि मुझे कहीं भी इज्जतकी दरकार नहीं है। वह तो राज-दरबारोंकी चीज है। मैं तो जैसा सेवक हिन्दुओंका हूँ, वैसा ही मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियोंका भी हैं। सेवकको तो प्रेम चाहिए, इज्जत नहीं। और जबतक मैं निष्ठावान् सेवक बना रहेगा तबतक यह प्रेम तो मुझे मिलेगा ही। मैं मौलानासे कहना चाहता हूँ कि वे मेरी इज्जत बजाय इस्लामकी इज्जतकी फिक्र करें। उसमें उनका हाथ मैं भी बटाऊँगा। मेरी रायमें तो जिस कार्यका समर्थन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता, उन्होंने उसका समर्थन करके अनजानमें उसकी इज्जत बहुत कुछ घटाई है। कितनी भी चतुराईभरे तर्क क्यों न दिये जायें, किन्तु किसी भी अपराधमें संगसारीकी सजा देनेका कदापि समर्थन नहीं किया जा सकता और धर्मत्यागके अपराध तो संगसारीसे या किसी दूसरे प्रकारसे मौतकी सजा देना कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता।

मेरी स्थिति तो बिलकुल स्पष्ट है। इस्लामके सम्बन्धमें लिखते समय मैं उसकी इज्जतका खयाल उतना ही रखता हूँ, जितना हिन्दू धर्मकी इज्जतका। इस्लामकी व्याख्या करनेके लिए मैं वही पद्धति अपनाता हूँ जो हिन्दू धर्मके लिए। मैं हिन्दू धर्मग्रन्थोंके किसी भी आदेशका समर्थन केवल इस आधारपर नहीं करता कि वह शास्त्रकी आज्ञा है। इसी तरह मैं 'कुरान' की किसी बातको भी केवल इसीलिए नहीं मान सकता कि वह 'कुरान' में लिखी है। प्रत्येक बात विवेककी कसौटीपर कसी जानी चाहिए। लोगोंकी विवेकबुद्धिको इस्लाम जँचता है, तभी वह उन्हें पसन्द आता है। और कालान्तरमें यह मालूम हो जायेगा कि दूसरे किसी तरीकेसे उसका विवेचन करनेपर बहुत मुश्किलें पेश आयेंगी। संसारमें बेशक ऐसी चीजें भी हैं जो बुद्धिसे परे हैं। यह बात नहीं कि हम बुद्धिकी कसौटीपर उनकी परीक्षा नहीं करना चाहते; लेकिन वे स्वयं ही उसकी मर्यादामें नहीं आतीं। वे अपने सहज रूपके कारण ही बुद्धिसे अगम्य हैं। ईश्वरका रहस्य ऐसा ही है। वह बुद्धिसे असंगत तो नहीं है, उसके परे है। लेकिन