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२३६. कन्याकुमारीके दर्शन

हिन्दुस्तान कश्मीरसे कन्याकुमारी और कराचीसे असमतक फैला हुआ है। यही उसकी सीमाओंके चार छोर हैं। ऊपर हिन्दुकुश पर्वतशिखर भारत-माँको सुरक्षित और सुशोभित करते हैं। नीचे अरब सागर और बंगालका उपसागर अपने शुद्ध जलसे भारत-माँके पद पखारते हैं। कन्याकुमारी अर्थात् शंकरके समान अवधूत पर साक्षात् देवस्वरूप विभूतिके साथ विवाह करनेके लिए तपश्चर्या करती हुई पार्वती। हिन्दुस्तानका यह एक छोर है इसलिए इसकी तीन दिशाओंमें हमें समुद्र ही समुद्र दिखाई पड़ता है। दो प्रकारके जल यहाँ मिलते हैं। कदाचित् इसीलिए यहाँ दो रंगोंका भी कुछ आभास होता है। यदि हम दक्षिणकी तरफ मुख करके खड़े हों तो एक ही स्थानपर खड़े रहकर बायीं ओर सूर्योदय और दायीं और सूर्यास्त दोनों देख सकते हैं। यह दृश्य देखने का हमें समय न था। लेकिन हम प्रातःकाल तारोंको निस्तेज कर बंगालके महोदधिमें स्नान करके उदय होते हुए और शामको सुवर्णमय आकाशमें से नीचे उतरकर पश्चिमके रत्नाकरमें शयन करनेके लिए जाते हुए सूर्यकी कल्पना कर सकते हैं। रियासतके अतिथिगृहके चौकीदारने सूर्यास्तके भव्य दृश्यको ही देखनेके लिए रुक जानेको हमें बहुत कहा। लेकिन हम तो घोड़ेपर चढ़कर---मोटरपर चढ़कर---आये थे, इस आनन्दको लूटने के लिए कैसे रुक सकते थे? मैंने तो भारत-माँके पैर पखार कर पवित्र हुए समुद्रके जलसे अपने पैरोंको पवित्र करके ही सन्तोष मान लिया।

कैसी अद्भुत है ऋषियोंकी रचना और हमारे पूर्वजोंका सौन्दर्य-बोध। यहाँ हिन्दुस्तानकी सीमा और दुनियाके एक छोरपर ऋषियोंने कन्याकुमारीके मन्दिरकी स्थापना की है और हमारे पूर्वजोंने उसे रंगभर कर सजाया है। वहाँ मुझे सृष्टिके सौन्दर्यका रस लूटनेकी इच्छा नहीं हुई---यद्यपि वहाँ वह रस लबालब भरा हुआ था। मैंने तो वहाँ धर्मके रहस्यामृतका पान किया। जब मैं वहाँके सुन्दर घाटपर समुद्र में पैर धो रहा था कि मेरे एक साथीने कहा, "सामनेकी पहाड़ीपर जाकर विवेकानन्द ध्यान किया करते थे।" यह बात सच हो या न हो लेकिन उनके लिए यह सम्भव था। अच्छा तैरनेवाला वहाँतक तैर कर जा सकता है। उस पहाड़ी रूपी द्वीपपर अपार शान्ति ही होगी। समुद्रकी लहरोंका मंद और मधुर संगीत तो समाधिमें सहायक होता है। इसलिए मेरी धर्म चिन्तनकी इच्छा अधिक तीव्र हो गई। सीढ़ियोंके नजदीक ही एक चबूतरा बना हुआ है। उसपर करीब सौ आदमी आसानीसे बैठ सकते हैं। मुझे वहाँ बैठकर 'गीता' का पाठ करने की इच्छा हुई। लेकिन अन्तमें मैंने उस पवित्र इच्छाको भी दबा दिया और 'गीता' कार का मन-ही-मन स्मरण करके मैं शान्त बैठा रहा।

इस प्रकार पवित्र होकर हम मन्दिरमें गये। मैं तो अस्पृश्यता-निवारणका हिमायती हूँ और अपना परिचय भंगी कहकर देता हूँ, इसलिए उसमें मैं प्रवेश कर सकूँगा या