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२३८. स्वर्णोद्यान

त्रावणकोर कोई प्रान्त नहीं है, बल्कि एक विशाल नगर जैसा है। उसके नागरिक बम्बईके नागरिकोंकी भाँति कई मंजिले और एक दूसरेसे सटे मकानोंमें नहीं रहते, बल्कि लगभग एक मील या उससे कम दूरीपर खेतों और बगीचोंसे घिरे हुए छोटे-छोटे सुन्दर छप्परदार मकानोंमें रहते है। मैंने ऐसा मलाबार और उसके पड़ोसी केरल प्रान्तके अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं देखा। समूचा त्रावणकोर एक सुन्दर उद्यान या बाड़ी है, जिसमें जहाँ-तहाँ नारियल, केले, काली मिर्च और आमके पेड़ खड़े दिखाई देते हैं। किन्तु नारियलके समूह इन सबको आच्छादित किये हुए हैं। यात्री इन्हीं कुंजोंसे होकर गुज़रता है। यात्रा दो प्रकारसे की जा सकती है, एक नहरों और खाड़ियोंके मार्गसे नौका द्वारा और दूसरे सड़कोके मार्ग से माटरों द्वारा। रेलमार्ग भी है, किन्तु वह बहुत कम हिस्सोंमें है। जलमार्गका दृश्य बहुत ही सुन्दर है। यात्रा करते हुए दोनों किनारे दिखते हैं; और जहाँतक दृष्टि जाती है वहाँतक दोनों किनारे बारहों मास हरे-भरे और फैले हुए एक बगीचेसे दिखाई देते हैं। मैंने इसीलिए इसे स्वर्णोद्यान कहा है। यदि कोई, सूर्यास्तसे पूर्व इन नहरों और खाड़ियोंसे होकर धीरे-धीरे यात्रा करता हुआ इन बगीचोंकी ओर देखे तो उसे यही लगेगा कि पेड़ोंमें सोनेके पत्ते लगे हुए हैं। सूर्य इन पत्तोंके बीच में से झाँकता है और एक गोलाकार चलते हुए सोनेके पहाड़-जैसा दिखता है। मनुष्य उसको देखते हुए और ईश्वरकी लीलाका बखान करते हुए थकता ही नहीं है। कोई चित्रकार उसका चित्रण नहीं कर सकता। यह दृश्य क्षण-क्षण बदलता है और क्षण-क्षण अधिकाधिक सुन्दर होता जाता है। ऐसे दृश्यका चित्रण कौनकर सकता है? प्रभुकी इस रचनाके सामने मनुष्यकी कृति तुच्छ लगती है। फिर इस दृश्यको लाखों मनुष्य नित्य ही कुछ खर्च किये बिना देख सकते हैं।

त्रावणकोर और असमके दृश्योंको देखकर मुझे तो ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानियोंको सृष्टिके सौन्दर्यको देखने के लिए हिन्दुस्तानसे बाहर जानेकी कोई जरूरत ही नहीं और वायु-परिवर्तनके लिए तो हिन्दुस्तानमें हिमालय, नीलगिरि और आबू जैसे पहाड़ मौजूद हैं। ऐसे सुन्दर देशमें, जहाँ सभीको अपने-अपने अनुकूल जलवायु मिल सकती है, मनुष्यको सन्तोष क्यों नहीं होता? स्वर्गीय कवि श्री मलबारीकी भाषामें कहें तो जबतक कोई मनुष्य अपने घर, अपने कूचे, अपने नगर और अपने देशके इतिहास और भूगोलके सौन्दर्यका अवलोकन नहीं करता तबतक वह किसी भी दूसरे देशको देखने या जाननेमें कैसे समर्थ हो सकता है? इसके बिना उसके पास तुलना करनेके लिए कोई मापदण्ड ही नहीं हो सकता; इसलिए वह देखनेपर भी कुछ नहीं देख सकता। जैसे दर्जी और मोचीके पास अपना नपना न हो तो वह नाप नहीं ले सकता, वैसे ही सृष्टि सौन्दर्यका प्रेमी अपने देशका ज्ञान हुए बिना दूसरे देशको देखते हुए भी नहीं देख सकता। उसकी दृष्टिमें तो वे ही वस्तुएँ सुन्दर होती हैं जिन्हें वह आँखें खोलकर