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मेरी जवाबदेही

है और उसके सहारे-सहारे बाहर मार्ग हैं। इन मार्गोंपर बैलगाड़ियाँ भी चलती हैं किन्तु इनपर कोई अस्पृश्य नहीं जा सकता। इस प्रकारके अन्धेर और अन्यायके निवारणके लिए वाइकोममें सत्याग्रह किया जा रहा है। मैंने वहाँके कट्टर सनातनियोंसे जो इस प्रथाके समर्थक है, मिलकर विनयपूर्वक बातचीत की थी। उन्होंने इसके समर्थनमें बहुत तर्क दिये; किन्तु मुझे उनमें कोई सार दिखाई नहीं दिया। अन्तमें मैंने तीन सुझाव दिये और यह स्वीकार किया कि यदि वे लोग उनमें से किसी एकको मान लेंगे और उसके माननेका परिणाम चाहे सत्याग्रहियोंके उद्देश्यके विरुद्ध होगा तो भी सत्याग्रह बन्द कर दिया जायेगा। किन्तु ये भाई तो इस सुझावको भी माननेके लिए तैयार नहीं हुए। अन्तमें हमने वहाँके पुलिस कमिश्नरसे सलाह की और उसके परिणामस्वरूप हमारे बीच एक करार [१] हुआ। वह महादेव भाईके पत्र में अन्यत्र दिया गया है।

इस प्रकार यह आन्दोलन अब यहाँ आकर रुक गया है। शासक मेरे सुझावोंको पसन्द करते हैं; इसलिए आशा है कि कुछ ही दिनोंमें इस आन्दोलनका शुभ अन्त हो जायेगा। किन्त यह सब सत्याग्रहियोंके सच्चे अर्थात् विनययुक्त आग्रहपर निर्भर है। यदि वे स्वेच्छापूर्वक स्वीकार की हुई मर्यादाओंका उल्लंघन न करेंगे तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसका परिणाम अवश्य ही शुभ होगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २९-३-१९२५

२३९. मेरी जवाबदेही

अखबारों में मेरे भाषणोंके जो विवरण छपते हैं उनके सम्बन्धमें मुझसे कितने ही प्रश्न किये जाते हैं। ऐसे प्रश्नोंका उत्तर देना मुझे असम्भव मालूम होता है। मैं अखबार नहीं पढ़ता, क्योंकि मुझे उन्हें पढ़नेका समय नहीं मिल पाता। मेरा बहुत-सा समय तो सफर ही में बीत जाता है। इसलिए मेरी डाक भी मुझे देरसे मिलती है और सफर करते हुए भाषण भी बहुत देने पड़ते हैं। ऐसी दयनीय स्थितिमें मैं किसे उत्तर दूँ, यह एक सवाल खड़ा हो जाता है। अपने देशमें भाषणोंको लिख सकें ऐसे लघु लिपि जाननेवाले भी बहुत कम मिलते हैं। इसलिए मैंने अखबारोंमें अपने भाषणोंके जितने भी विवरण पढ़े हैं उनमें से शायद ही कोई मुझे पसन्द आया होगा। एक शब्दके फर्कसे भी वक्ताके अर्थका अनर्थ हो सकता है। इसलिए सब सज्जनोंसे मेरी प्रार्थना है कि यदि वे मेरे भाषण अखबारोंमें पढ़ें और उन्हें कोई बात मेरे प्रतिष्ठित विचारोंके विरुद्ध मालूम हों तो वे यह मान लें कि मैंने ऐसा नहीं कहा होगा। जो भी संग्रह करने योग्य है, 'नवजीवन' में देनेका प्रयत्न किया जाता है। इसके अलावा जो-कुछ मैं कहता हूँ, स्थान विशेषके श्रोताओंके लिए कहता हूँ। इसलिए उसको लिपिबद्ध कर उसका संग्रह न किया जाये तो उससे मुझे कुछ भी दुःख न होगा। लेकिन जिन्हें

१. देखिए "पत्र: एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडियाको", २४-३-१९२५।