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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे विचार प्रिय हैं, उन्हें भी उससे कोई दुःख नहीं होना चाहिए। जुदे-जुदे प्रकारसे अभिव्यक्त वही विचार उन्हें मिलें तो भी क्या और न मिले तो भी क्या? आज जिस बातकी अधिक आवश्यकात है वह तो यह है कि जो कुछ भी सुना हो या पढ़ा हो उसे अच्छी तरह पचा लिया जाये और उसपर अमल किया जाये। ज्यादा पढ़नेसे लाभके बदले हानि भी होनी सम्भव है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २९-३-१९२५

२४०. टिप्पणियाँ

चार विवाह


मेरी देखरेख में और कहें तो मेरे ही हाथसे आश्रमकी भूमिमें डा० प्राणजीवन दास मेहताके बंगलेमें जो तीन विवाह हुए थे, मैं उनके सम्बन्धमें लिखने की इच्छा होने पर भी समयाभावके कारण अबतक कुछ नहीं लिख सका था। किन्तु चूँकि वे जानने योग्य हैं, इस कारण मैं उनको चर्चा यहाँ करता हूँ। किसीके भी विवाहका प्रबन्ध करना, अथवा उसमें भाग लेना अथवा उसके लिए किसीको प्रोत्साहित करना मेरा काम नहीं है। फिर आश्रमकी भूमिमें विवाहकी क्रिया सम्पन्न करना आश्रमके आदर्शसे संगत नहीं माना जा सकता। ब्रह्मचर्यका पालन स्वयं करना और दूसरोंसे करवाना मेरा धर्म रहा है। फिर मैं इस कालको आपत्ति काल मानता हूँ। ऐसे समय में विवाह किया जाये या सन्तानवृद्धिकी जाये, मैं इसे अनिष्टकर मानता है। ऐसे समयमें समझदार लोगोंका काम भोग-वृत्तिको घटाना और त्यागवृत्तिको बढ़ाना होना चाहिए।

यह तो हुआ एक पक्ष। मेरी इच्छा और आदर्श एक बात है। किन्तु जो अनिवार्य हो और साथ ही सर्वांशमें अनिष्टकर न हो वैसे कार्यमें यदि संयम-धर्म अथवा खादीप्रचारका विशेष पालन किया जाये तो मैं उसमें भाग लेता हूँ और उसे अनुचित नहीं मानता और कुछ हदतक उचित भी मानता हूँ।

ये तीनों विवाह इसी कोटिके थे। मैं इस प्रकारके दो विवाह पहले ही सम्पन्न करा चुका हूँ। ये विवाह इमाम साहेबकी [१] दो पुत्रियोंके थे। इमाम साहब मेरे साथ रहते हैं और मुझे सगे भाईके समान मानते हैं। उनकी बेटियोंको मैं अपनी बेटियाँ मानता आया हूँ। एक बहन फातिमा थी जो विवाहके कुछ वर्ष बाद ही मर गई और दूसरी थी अमीना। मुझे और इमाम साहबको उन दोनोंका विवाह उनकी इच्छासे करना ही था। हमने इन विवाहोंमें ज्यादासे-ज्यादा जितनी सादगी बरती जा सकती थी उतनी सादगी बरती थी। दोनों विवाहोंमें वर और कन्या दोनोंके कपड़े खादीके ही थे। उनमें घनिष्ट मित्रोंके अतिरिक्त अन्य किसीको नहीं बुलाया गया था। इस समय

१. इमाम अब्दुल कादिर बावजीर।