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कुछ कठिन प्रश्न

मेरा खयाल यह नहीं है कि कांग्रेस हिन्दुओंके हितोंका, जहाँतक वे राष्ट्रीय हितोंसे अर्थात् राष्ट्रकी अंगभूत सभी जातियोंके हितोंसे मेल खाते हैं वहाँतक, प्रतिनिधित्व करने में विफल रही है। इसलिए हिन्दू महासभाके अस्तित्वके औचित्यका आधार भी कुछ और ही होना चाहिए। स्पष्ट है कि कांग्रेस परस्पर विरोधी हितोंका प्रतिनिधित्व तो नहीं कर सकती। हितों और प्रयत्नोंकी पारस्परिक अनुकूलता कांग्रेसके अस्तित्वकी पहली शर्त है।

उत्तर भारतमें तो हिन्दुओं और मुसलमानोंके दंगे और फसाद अकसर होते रहते हैं, लेकिन वे दक्षिण भारतमें या तो होते नहीं या होते भी हैं तो बहुत कम। क्या आप बतायेंगे कि आपके सच्चे मत और विश्वासके अनुसार इसका तात्कालिक या दीर्घकालिक, वास्तविक कारण क्या है?

मैं तो सिर्फ अनुमान ही लगा सकता हूँ और मेरा अनुमान यह है कि उत्तर भारतमें दोनों सम्प्रदायोंके लोगोंके बीच ज्यादा झगड़ा-फसाद इसलिए होता है कि वहाँ दोनोंकी शक्ति लगभग समान है; दक्षिणमें ऐसा नहीं है। दंगे जहाँ होते हैं वहाँ वे इसलिए होते हैं कि दोनों जातियोंके लोग साम्प्रदायिक ढंगसे सोचते हैं और दोनों एक-दूस सरेसे डरते और एक-दूसरे में अविश्वास रखते हैं तथा दोनोंमें से किसीमें भी इतनी हिम्मत या दूरदर्शिता नहीं होती कि वह भविष्यकी खातिर वर्तमानका खयाल छोड़ दे, या राष्ट्रके हितोंके लिए साम्प्रदायिक हितोंकी परवाह न करे।

क्या आप सचमुच यह आशा करते हैं कि आप देवबन्दके मजहबी मकतबके और जमीयत-उल-उलेमा-ए-हिन्दके मौजूदा कट्टरपन्थी औलियोंकी मददका भरोसा करके, जैसा कि आप आजकल कर रहे हैं, हिन्दू-मुस्लिम एकताकी समस्याको हल कर सकेंगे? ये आलिम तो हमेशा ही मुसलमानोंको एक खासी बड़ी जमातको, जिसे लोग कादियानी, मिर्जाइया या ज्यादातर अहमदिया कहते हैं, काफिर, नास्तिक, धर्मच्युत और केवल संगसारीको सजाके लायक मानकर उसको निन्दा करते हैं। क्या आप इस विकट समस्याको हल करने में अहमदिया जमातको, असलमें जिनके हाथमें इस समस्याके हलकी कुँजी मालूम पड़ती है और जिन्होंने अपने लेखोंसे और आचरणसे इस समस्याको बहुत-कुछ हल भी कर लिया है, सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न भी करना चाहते हैं?

मुझे तो कट्टरपन्थी औलियों और अहमदिया सम्प्रदाय दोनों ही को अपने पक्षमें लेनेकी कोशिश करनी चाहिए। कट्टरपन्थी औलियोंकी उपेक्षा करना वांछनीय हो तो भी असम्भव है। फिर भी उचित यही है कि किसी एक व्यक्ति या समुदायपर बिलकुल निर्भर न रहा जाये। हमें अपने लिए एक न्यूनतम मर्यादा निश्चित कर लेनी चाहिए और फिर उससे पीछे न हटना चाहिए। इतना हो जानेपर अपनी विनयशीलताके बलपर सारे संसारको अपने पक्षमें लाया जा सकता है।

भारतके मुसलमान आम तौरपर दूसरे मुसलमान देशोंके मामलों में तो इतनी गहरी दिलचस्पी लेते हैं, लेकिन ऐसे मुसलमानोंको संख्या नगण्य-सी ही