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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और दूसरी एकबात तो अभी बम्बई पहुँचनेपर ही मुझे मालूम हुई है। मैने सुना है कि कुछ सज्जन ऐसे हैं जो पूरे तौरसे खादीके कपड़े पहने बिना ही कांग्रेसकी बैठकोंमें बराबर शामिल हो रहे हैं। मेरी रायमें ऐसे लोग जबतक हाथकती और हाथबुनी खादी नहीं पहनते तबतक न तो वे सदस्य माने जा सकते हैं और न कमेटीकी बैठकमें शामिल होनेका हक रखते हैं। उस दशामें न तो वे भाषण कर सकते हैं और न मत दे सकते हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २-४-१९२५

२४९. कुछ तर्कों का विवेचन

सन्तति-नियमन सम्बन्धी मेरे लेखको [१] पढ़कर, जैसा अनुमान था, मेरे पास कृत्रिम साधनोंके पक्ष में लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ आई हैं। उनमें से मैंने सिर्फ तीन बतौर नमूनेके रूपमें चुन ली हैं। [२] एक चौथी चिट्ठीका विषय अधिकांशतः धर्मसे सम्बन्धित है, इसलिए मैंने वह छोड़ दी है। तीन चिट्ठियोंमें से एक संक्षेपमें इस प्रकार है:

मैं मानता हूँ कि ब्रह्मचर्यही अचूक और सर्वोत्तम उपाय है। लेकिन यह संयमका विषय है, सन्तति-नियमनका नहीं। हम सन्तति-नियमनकी समस्याओंपर दो दृष्टियोंसे विचार कर सकते हैं-- व्यक्तिकी दृष्टिसे और समाजकी दृष्टिसे। कामवासनाका निरोध करना और इस प्रकार अपना आत्मबल बढ़ाना प्रत्येक व्यक्तिका कर्त्तव्य है; लेकिन उसमें सन्तति-नियमनका खयाल नहीं होता। संन्यासी मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है, सन्तति-नियमनका नहीं। यह समस्या तो गृहस्थकी है। एक मनुष्य कितने बच्चोंका पालन-पोषण कर सकता है, यह सवाल है। आप मनुष्य-स्वभावको तो जानते ही हैं। कितने मनुष्य सन्तानोत्पत्तिकी आवश्यकता पूरी हो जाने के बाद सम्भोगसुखको पूर्णतः छोड़ने के लिए तैयार हो सकते हैं? स्मृतिकारोंकी तरह आप संयममें रहकर सम्भोगेच्छा पूरी करनेकी इजाजत तो देंगे ही। उससे सन्तान अधिक अच्छी होगी; लेकिन इससे सन्तति-नियमनका सवाल हल नहीं होगा, क्योंकि सशक्त लोग अशक्त लोगोंसे अधिक तीव्र गतिसे बढ़ते हैं।

सन्तानोत्पत्तिकी इच्छासे कितने मनुष्य सम्भोग करते हैं? आप कहते हैं सन्तानोत्पत्तिकी इच्छाके बिना सम्भोग करना पाप है। यह आप-जैसे संन्यासीके लिए बहुत उपयुक्त है। आप यह कहते हैं कि सन्तति-नियमनके लिए कृत्रिम साधनोंका प्रयोग करने से बुराई बढ़ती है। उससे स्त्री-पुरुष उच्छृंखल

१.देखिए "सन्तति-नियमन", १२-३-१९२५।

२. मूल अंग्रेजी लेखमें उद्धृत पत्रोंको संक्षिप्त रूपमें दिया गया है।