पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/४७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४३
कुछ तुर्कोंका विवेचन

हो जाते हैं। यह सच हो तो बहुत बड़ा आरोप है। लोकमत इतना प्रबल कभी नहीं हुआ कि उससे सम्भोगकी गति रुक सके। लोग कहते हैं कि सन्तान ईश्वरकी इच्छासे होती है, जो दाँत देता है वह अन्न भी देता है और अधिक सन्तति पौरुषका प्रमाण है। क्या निश्चय ही सन्तति-नियमनके कृत्रिम साधनोंका प्रयोग करनेसे शरीर और मन निर्बल हो जाते हैं? इसके निर्दोष साधन भी हैं, जिन्हें विज्ञानने खोज निकाला है या जल्दी ही निकाल लेगा। लेकिन आप तो किसी भी अवस्थामें उसका उपयोग करने देना नहीं चाहते, क्योंकि अपने कर्मके फलसे बचना बुरा है और अनीतिमय है। इसमें आप यह मान लेते हैं कि ऐसी भूखको थोड़ा भी मिटाना अनीतिमय है। मैं पूछता हूँ कि सन्ततिके 'भय' से कौन रुका है? फिर 'भय' संयमका कारण हो तो उसका नैतिक परिणाम अच्छा न होगा। माता-पिताके पापोंकी भागी सन्ततिको किस नियमसे होना चाहिए? सच है कि प्रकृति अपने नियमोंके भंगका दण्ड अवश्य देगी। किन्तु ये कृत्रिम साधन प्रकृत्रिके नियमोंका भंग करते हैं, यह आप क्यों मान लेते हैं? बनावटी दाँतों और आँखों इत्यादिके इस्तेमालको कोई प्रकृति-विरुद्ध नहीं समझता। वही वस्तु प्रकृति-विरुद्ध है जिससे हमारी भलाई न हो। मैं यह नहीं मानता कि मनुष्य स्वभावसे बुरा है और इन तरीकोंसे अधिक बुरा हो जायेगा, इस नई शक्तिका सदुपयोग होगा। साथ ही हमें स्त्रियोंको भी नहीं भूलना चाहिए। उनकी आवश्यकताओंपर हमने बहुत दिनोंतक ध्यान नहीं दिया है। वे पुरुषोंको सन्तानोत्पत्तिके निमित्त अपने शरीरोंका प्रयोग क्षेत्रके रूपमें नहीं करने देना चाहतीं। कुछ रोग भी ऐसे हैं जिनसे इन कृत्रिम साधनोंके प्रयोगसे उत्पन्न मज्जातन्तुओंकी निर्बलताको जोखिम उठाकर भी बचना चाहिए।

मैं यह बात पहले ही साफ कर दूँ कि मैंने वह लेख संन्यासियोंके लिए या संन्यासीकी हैसियतसे नहीं लिखा है। मैं प्रचलित अर्थमें संन्यासी होनेका दावा भी नहीं करता। मैंने जो-कुछ लिखा है अपने पच्चीस वर्षके अखण्डित निजी आचरणके आधारपर लिखा है। इसमें बीचमें कहीं-कहीं थोड़ा-सा नियम-भंग हुआ है। यही नहीं इसमें मेरे उन मित्रोंका अनुभव भी शामिल है जिन्होंने इस प्रयोगमें इतने लम्बे समय तक इसलिए मेरा साथ दिया है कि उससे कुछ परिणाम निश्चित किये जा सकें। इस प्रयोगमें क्या युवक और क्या बूढ़े दोनों प्रकारके स्त्री-पुरुष सम्मिलित हैं। मैं इस प्रयोगमें कुछ अंशतक वैज्ञानिक विशुद्धताका दावा करता हूँ। यद्यपि उसका आधार बिलकुल नैतिक है, तथापि उसका आरम्भ सन्तति-नियमनकी अभिलाषासे हुआ था। मेरा स्वयं भी विशेष रूपसे यही प्रयोजन था। उसके पश्चात् कुछ बातें सूझी जिनके भारी नैतिक परिणाम निकले--पर निकले वे बिलकुल स्वाभाविक रूपसे। मैं यह दावा करता हूँ कि यदि विवेक और सावधानीसे काम लिया जाये तो बिना अधिक कठिनाई के संयमका पालन किया जा सकता है और यह दावा केवल मेरा ही नहीं, जर्मन तथा अन्यदेशीय प्राकृतिक चिकित्सकोंका भी है। उनका तो कहना है कि जल तथा