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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मिट्टीके उपचारोंसे और अनुत्तेजक तथा विशेषतः फलोंके भोजनसे स्नायुको शीतलता मिलती है, एवं विषय-विकार आसानीसे वशमें आते हैं और साथ ही शरीर भी सशक्त होता है। राजयोगियोंका भी कहना है कि योगकी अन्य ऊँची विधियोंको छोड़ भी दें और केवल यथाविधि प्राणायाम ही करें तो भी यही लाभ होता है। पश्चिमी और प्राचीन भारतीय संन्यासियोंके लिए ही नहीं बल्कि मुख्यत: ये दोनों विधियाँ गृहस्थोंके लिए है। यदि यह कहा जाये कि जनसंख्याकी अतिवद्धिके कारण राष्ट्रके लिए सन्ततिनियमनकी आवश्यकता है तो मैं इससे सहमत नहीं हूँ। यह बात अभीतक साबित नहीं हुई है। मेरी रायमें तो यदि धरतीका समुचित प्रबन्ध किया जाये, कृषिकी दशा सुधारी जाये और एक सहायक धन्धेकी तजवीज कर दी जाये तो हमारा यह देश अपनी आजकी आबादीसे दूनी आबादीका भरण-पोषण कर सकता है। मैंने तो देशकी मौजूदा राजनीतिक अवस्थाको देखते हए ही सन्तति-नियमनके समर्थकोंका साथ दिया है।

मैं यह बात जरूर कहता हूँ कि सन्तानकी आवश्यकता पूरी हो जाने पर मनुष्यको कामवासनामें लिप्त नहीं होना चाहिए। आत्मसंयमके उपायको लोकप्रिय और सफल बनाया जा सकता है। शिक्षित लोगोंने कभी उसकी आजमाइश ही नहीं की। संयुक्त कुटुम्ब-प्रथाकी बदौलत शिक्षित वर्गने अभी उसकी आवश्यकता महसूस नहीं की है। जिन्होंने यह जरूरत महसूस भी की है उन्होंने उस मतमें निहित नैतिक प्रश्नोंपर विचार नहीं किया है। जहाँ-तहाँ ब्रह्मचर्यपर व्याख्यान अवश्य दिये गये हैं; इसके अलावा अभीतक सन्तति-नियमनके उद्देश्यसे आत्म संयमके प्रचारका कोई भी व्यवस्थित प्रयत्न नहीं किया गया। इसके बाद यह अंधविश्वास अब भी प्रचलित है कि कुटुम्बका बड़ा होना शुभ है और फलतः वांछनीय है। सामान्यत: धर्मोपदेशक यह उपदेश नहीं देते कि स्थिति विशेषमें सन्तति-नियमन करना भी उतना ही बड़ा धार्मिक दायित्व है जितना स्थिति-विशेषमें सन्तान उत्पन्न करना।

मुझे भय है कि सन्तति-नियमनके कृत्रिम साधनोंके हिमायती इस बातको मानकर ही चलते हैं कि विषय-भोग जीवनके लिए आवश्यक है और इसलिए अपने-आपमें भी वांछनीय है। स्त्री-जातिकी जो वकालत की गई है वह तो अत्यन्त दयनीय है। मेरी रायमें तो कृत्रिम साधनोंके द्वारा सन्तति-नियमनके समर्थन में स्त्री-जातिका प्रश्न उठाना उसका अपमान करना है। बात यह है कि पुरुषने अपनी कामुकताके कारण उसकी बहुत-कुछ अधोगति कर दी है और अब इन कृत्रिम साधनोंसे उनके हिमायतियोंके सदुद्देश्योंके बावजूद उसकी और भी अधोगति होगी। मैं जानता हूँ कि यहाँ ऐसी आधुनिकाएँ भी हैं जो खुद ही इन साधनोंकी हिमायत करती हैं। परन्तु मुझे इस बातमें कोई शक नहीं है कि बहुसंख्यक स्त्रियाँ इन साधनोंको अपनी प्रतिष्ठाके विरुद्ध समझकर कदापि नहीं अपनायेंगी। यदि पुरुष सचमुच स्त्री-जातिका हित चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह स्वयं ही संयम पाले। स्त्रियाँ पुरुषोंको प्रेरित नहीं करतीं। सच पूछे तो चूँकि पुरुष ही पहल करता है, इसलिए वही सच्चा अपराधी और प्रेरक है।

मैं कृत्रिम साधनोंके हिमायती सज्जनोंसे आग्रह करता हूँ कि वे इनके नतीजोंपर गौर करें। इन साधनोंके ज्यादा उपयोग से हो सकता है कि विवाह-बन्धन टूट जायें