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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लेखक समाधान कराना नहीं, अपनी ही बातपर अड़े रहना चाहते हैं। मेरा खयाल है, मैंने यह दिखानेके लिए--कि यदि हम विवाह-बन्धनकी पवित्रताको मानते और कायम रखना चाहते हैं तो जीवनका धर्म भोग नहीं, बल्कि आत्म-संयम ही समझा जाना चाहिए--पर्याप्त उदाहरण दे दिये हैं। जिस बातको सिद्ध करना है मैं उसीको पहलेसे मानकर नहीं चला हूँ, क्योंकि मैं तो यही कहता हूँ कि कृत्रिम साधन चाहे कितने ही उचित क्यों न हों, पर वे हानिकर ही हैं। वे खुद चाहे हानिकर न हों, पर वे इस तरह हानिकर जरूर हैं कि उनके द्वारा काम-पिपासा तीव्र ही होती है और ज्यों-ज्यों उसको बुझाते हैं, त्यों-त्यों वह बढ़ती है। जिसके मनको यह माननेकी आदत पड़ गई है कि विषय-भोग केवल विधि-विहित ही नहीं बल्कि वांछनीय भी है, वह भोग ही में सदा रत रहेगा और अन्त में इतना निर्बल हो जायेगा कि उसकी तमाम संकल्पशक्ति नष्ट हो जायेगी। मैं मानता हूँ कि कामवासनाकी तृप्तिके प्रयत्नसे मनुष्यकी वह अनमोल शक्ति कम होती है जो पुरुष और स्त्री दोनोंके शरीर, मन और आत्माको सशक्त रखनेके लिए बहत आवश्यक है। इससे पहले मैंने इस विवादमें आत्मा शब्दको जानबूझकर छोड़ दिया था; क्योंकि लेखक महोदय उसके अस्तित्वका खयाल करते हुए नहीं दिखाई देते और इस विवादमें मुझे सिर्फ उनकी दलीलोंका जवाब देना था। भारतवर्ष में एक तो यों ही विवाहित लोगोंकी संख्या बहुत है। फिर वह निःसत्व भी बहुत अधिक हो चुका है। यदि और किसी कारणसे नहीं तो उसकी गई हुई जीवनशक्तिको वापिस लानेके ही लिए उसे कृत्रिम साधनोंके द्वारा विषय-भोगकी नहीं बल्कि पूर्ण संयमकी शिक्षाकी जरूरत है। आज दवाओंके अनीतिमूलक विज्ञापन हमारे अखबारोंका स्वरूप विकृत कर रहे हैं। सन्तति-नियमनके हिमायती उन्हें अपने लिए चेतावनी समझें। मैं इसकी चर्चा ज्यादा नहीं करता, इसका कारण झूठी शिष्टता या लज्जा नहीं; बल्कि इस संयमका कारण यह ज्ञान है कि इस देशके जीवनशक्तिसे हीन और निर्बल युवक विषयभोगके पक्षमें पेश की गई सदोष युक्तियोंके शिकार कितनी आसानीसे हो जाते हैं।

अब शायद इस बातकी जरूरत नहीं रही कि मैं दूसरे पत्रलेखकके उपस्थित किये डाक्टरी प्रमाणपत्रका जवाब दूँ। मेरे पक्षसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं। मैं इस बातका न तो समर्थन करता हूँ और न खण्डन कि उचित कृत्रिम साधनोंसे जननेन्द्रियको हानि पहुँचती है या वन्ध्यत्व उत्पन्न होता है। योग्यसे-योग्य डाक्टरोंका समुदाय भी उन सैकड़ों नौजवानोंके जीवनके सर्वनाशको मिथ्या सिद्ध नहीं कर सकता, जो उनकी अपनी पत्नियोंके साथ ही सही अति भोगका परिणाम है और जिसे मैंने खुद देखा है।

पहले लेखककी दी हुई कृत्रिम दाँतोंकी उपमा फबती हुई नहीं जान पड़ती। बनावटी दाँत जरूर ही मनुष्य-कृत और अस्वाभाविक होते हैं; पर उनसे कमसे-कम एक आवश्यक प्रयोजनकी पूर्ति तो हो सकती है। पर इसके खिलाफ विषय-भोगके लिए कृत्रिम साधनोंका प्रयोग उस भोजनकी तरह है जो भूख मिटाने के लिए नहीं, बल्कि स्वादेन्द्रियको तृप्त करने के लिए किया जाता है। केवल जिह्वाके सुखके लिए भोजन करना उसी तरह पाप है जिस तरह कामवासनाकी तृप्तिके लिए सम्भोग करना।