पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/४७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४७
कुछ तर्कोंका विवेचन

इस तीसरी और आखिरी चिट्ठी में, एक नई ही बात मिलती है, अतः यह दिलचस्प है:

यह प्रश्न संसारके सब राज्योंको चिन्तित कर रहा है। मैं आपके सन्तति-नियमन सम्बन्धी लेखके बारेमें लिख रहा हूँ। आप निःसन्देह यह तो जानते ही होंगे कि अमेरिकाकी सरकार इसके प्रचारके खिलाफ है। आपने यह भी सुना होगा कि एक पूर्वी देश जापानने इसकी खुले आम इजाजत दे दी है। दोनोंके सम्मुख इसके अलग-अलग कारण हैं और वे सबको विदित हैं। जापान सरकारका प्रजोत्पत्ति रोकना जरूरी है; किन्तु इसमें वह मनुष्यस्वभावका विचार करना भी जरूरी मानती है। क्या सन्तति-नियमन इसका एकमात्र मार्ग नहीं है? आपका आत्म-संयमका नुस्खा आदर्श हो सकता है, लेकिन क्या वह व्यावहारिक भी है? क्या मनुष्य सम्भोग-सुखको छोड़ सकता है? थोड़े लोग ब्रह्मचर्यका पालन कर सकते हैं; लेकिन क्या जनतामें इसके सम्बन्धमें की गई किसी हलचलसे कुछ मतलब हल हो सकता है? भारतमें तो इसके लिए जन-साधारणमें व्यापक आन्दोलनकी ही आवश्यकता है।

मैं अवश्य ही मानता हूँ कि मुझे अमेरिका और जापानकी ये बातें मालूम न थीं। पता नहीं, जापान क्यों कृत्रिम साधनोंका पक्ष ले रहा है। यदि लेखककी बात सही है और सचमुच जापानमें कृत्रिम साधन आम हो रहे हैं तो मैं साहसके साथ कहता हूँ कि यह सुन्दर देश अपने नैतिक सर्वनाशकी ओर बढ़ रहा है।

हो सकता है कि मेरा खयाल बिलकुल गलत हो। सम्भव है मैंने ये निष्कर्ष गलत सामग्रीके आधारपर निकाले हों। लेकिन सन्तति-नियमनके हिमायतियोंको धीरजसे काम लेना चाहिए। आधुनिक उदाहरणोंके अतिरिक्त उनके पक्षमें कुछ भी सामग्री नहीं है। निश्चय ही इस नियमन प्रणालीका भविष्य क्या होगा इस विषयमें अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। यह तो ऊपरसे देखें तो भी मनुष्य-जातिके नैतिक भावोंके अतिशय विरुद्ध हैं। नौजवानीके साथ खिलवाड़ करना तो बहुत आसान है, परन्तु इस खिलवाड़के दुष्परिणामोंका परिमार्जन करना कठिन होगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २-४-१९२५