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२५०. धोलका ताल्लुकेके कष्ट

घोलकासे एक संवाददाताने लिखा है: [१]

यदि उक्त कष्टोंकी बात सच हो तो उनको दूर करनेके तीन उपाय हैं और उन तीनोंको एक साथ काममें लाना चाहिए। जो लोग अज्ञानवश या भयके कारण अन्यायको सहन करते हैं, हमें उनका अज्ञान और भय समझाकर दूर कर देना चाहिए। सिपाहियोंको भी उनका धर्म समझाया जाना चाहिए और [आवश्यक हो जानेपर] उस विभागके अधिकारियोंके सम्मुख शिकायतें रखी जानी चाहिए। जो लोग कष्टोंको सहन करते हैं वे असहयोगी नहीं माने जा सकते; इसलिए वे आवेदनपत्र दे सकते हैं। एक चौथा उपाय मामलेको अदालतमें ले जानेका भी है। दयालु वकील लोगोंकी ओरसे मुफ्तमें पैरवी कर सकते हैं। इस उपायका आश्रय सरकार उनके कष्ट दूर न करे तब लिया जा सकता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २-४-१९२५

२५१. भाषण: मढडामें


२ अप्रैल, १९२५

कर्तव्यपरायणतामें मेरा अखण्ड विश्वास है। सैनिक कभी नहीं थकता। वह तो जूझता-जुझता ही मरना चाहता है और मनमें यह विश्वास रखता है कि यदि मुझे जीते-जी जीत न मिलेगी तो मैं मरकर तो जीतूँगा ही। यदि तप करते-करते प्राण चले जायें और पूरा आश्रम ध्वस्त हो जाये तो भी आप ऐसी श्रद्धा बनाये रखें कि गांधीने आत्मविश्वासका जो मन्त्र दिया है वह सत्य है और आपने जिस वस्तुको लेनेका संकल्प किया है वह इस जन्ममें नहीं तो अगले जन्ममें अवश्य मिलेगी।

कई बार हम निःसत्व-से हो जाते है और हमें ऐसा लगता है मानो हमारे सभी सहारे हमसे रूठ गये हैं। तभी हमपर अचानक, अनजाने कहींसे सहारोंकी वर्षा होने लगती है। मुझे अपने जीवनमें ऐसे कड़वे-मीठे अनुभव अनेक हुए हैं और मैं ऐसी बहुत-सी घटनाएँ सुना सकता हूँ। जब मैंने एक वर्षके भीतर स्वराज्य लेनेका निश्चय किया तब ईश्वरने मुझे पराजित कर दिया। उसने मुझसे कहा, 'ऐसी अवधि निश्चित करनेवाला तू कौन होता है?' यह बात सच है कि मैंने शर्तके साथ एक वर्षकी अवधि निर्धारित की थी, किन्तु शर्त रखनेपर भी मुझे यह तो समझ लेना चाहिए था

१. यहाँ यह पत्र नहीं दिया जा रहा है। संवाददाताने ताल्लुकेके चुँगी नाकेपर नियुक्त अधिकारियों और सिपाहियों द्वारा ग्रामीणोंको बहुत कष्ट देनेकी शिकायत की थी।