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भाषण: मढडामें

कि हिन्दुस्तानमें कितनी शक्ति है। मैंने इस शक्तिका अनुमान लगाने में भूल की। यह तो मेरा ही दोष था। यह किसी दूसरेका दोष नहीं माना जा सकता। फिर भी मुझमें सन् १९२०-२१ में जितनी श्रद्धा और विश्वास था आज उसकी अपेक्षा कई गुना अधिक है। उन्हींसे मुझे शान्ति और सुख मिल रहा है। जो लोग मेरे शान्ति और सुखमें भाग लेना चाहते हों वे मेरी जैसी श्रद्धा प्राप्त करें। आपने मुझे शान्तिका सरदार कहा है। किन्तु मेरे मित्र श्री शास्त्री और सरकार तो मुझे अशान्तिका सरदार मानते हैं। अहिंसा मेरा मन्त्र है। फिर भी बहुतसे लोग मेरे नामपर खून करें और लोगोंको गालियाँ दें तो मेरी अहिंसाका क्या अर्थ रह जाता है? मैं देखता हूँ कि मैं जिस बातको कहता या करता आया हूँ, उसका प्रभाव ऐसा पड़ा है कि उस बातका रूप ही विकृत दिखने लगा है। इसलिए मेरे मनमें यह प्रश्न उठता है कि मेरी अहिंसा कैसी है? ऐसे विघ्नोंके बावजूद मैं अहिंसा मन्त्रसे पागलोंकी तरह चिपटा हुआ हूँ। मैं समझ गया हूँ कि दूसरे लोग क्या कहेंगे; पर मुझे यह विचार करना छोड़ देना चाहिए और अपना काम करते जाना चाहिए। इसीलिए मैं पागल होनेका भय छोड़ कर अपना काम करता चला जाता हूँ।

इसके बाद गांधीजीने आश्रमोंके विभिन्न नामोंके विषयमें कहा:

उद्योगाश्रम कैसा अच्छा नाम है। उद्योगमें सभी वस्तुएँ आ जाती हैं। जहाँ ज्ञान, सेवा और कर्म ये तीनों अभीष्ट हों वहाँ उद्योगाश्रम और सेवाश्रम ये दो अलग-अलग नाम रखना विचार-दोष है। हमें इन तीनोंके सुसंगम या समन्वयको अपना उद्देश्य बना लेना चाहिए और इसके लिए योगाभ्यासीको कहना चाहिए कि वह एक घड़ी- भरके लिए भी ईश्वरपर अविश्वास न करे, उसके साथ खिलवाड़ न करे। ऐसा न मान ले कि हिन्दुस्तानके लोग पाखण्डी हैं। वे पाखण्डी नहीं हैं। यदि हम उनसे एक बनकर रहें तो वे तैंतीस कोटि देवता हैं, अन्यथा वे हमें राक्षस भी लग सकते हैं। पार्वतीको शिव-जैसा पति सहस्र वर्षतक तप करने पर ही मिला था, फिर अब तो कलियुग है। यदि आपका खयाल यह हो कि आप कुछ समयमें ही ज्ञान, सेवा और कर्मका समन्वय कर लेंगे तो यह मिथ्या है। शंकराचार्यने बताया है कि मुमुक्षुमें एक तिनका लेकर समुद्रको उलीचनेवाले व्यक्तिसे अधिक धीरज होना चाहिए। उसे मोक्ष केवल तभी मिल सकता है। यहाँ पण्डित लालन [१] और शिवजीभाई [२] धनप्राप्तिकी इच्छा करके बैठे हैं। इन्हें तो मुमुक्षुकी अपेक्षा भी अधिक धैर्य रखना चाहिए। यदि वे यह चाहते हैं कि रुपया बरसने लग जाये तो मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि रुपया तो हाथका मैल है। सद्भाव आत्माका उत्तम गुण है और सद्भाव प्राप्त करना कठिन है। जब शिवजीभाई या लालनको यह लगे कि लोग रुपया नहीं देते तो उन्हें मानना चाहिए कि उनमें दृढ़ताकी और आत्मदर्शनकी कमी है। उन्हें यह नहीं मानना चाहिए कि उनको आत्माका दर्शन हो गया है, बल्कि यह मानना चाहिए कि उन्हें तो उसके आभास-मात्रका दर्शन हुआ है। यदि हम ब्रह्मचर्यका थोड़ा-सा पालन करके

१. एक खादी कार्यकर्त्ता।

२. शिवजी देवशीभाई, खादी कार्यकर्त्ता।

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