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सम्पूर्ण गांधी वाड़्मय

कालीपरज या काली प्रजाका अर्थ यह नहीं है कि इस वर्गके लोगोंका वर्ण काला होता है। कालीका अर्थ है निम्न श्रेणीकी वे जातियाँ जिन्हें मेहनत-मजूरी करके अपनी गुजर करनी पड़ती है। इन लोगोंको परिषद् करनेकी जरूरत नहीं है। आज जमाना मजदूरोंका है। जो मनुष्य श्रमको श्रेष्ठ या प्रतिष्ठित नहीं मानेगा वह स्वयं भी प्रतिष्ठित नहीं रहेगा। भविष्यमें ऊँची जाति, नीची जाति, ऐसा कोई वर्गीकरण रहेगा ही नहीं।

आज तो पैसा परमेश्वर मान लिया गया है। किन्तु क्या संसारमें इसका स्थान सदा ऐसा ही बना रहेगा? क्या शैतानकी जगह हमेशा ऊँची बनी रहती है? जो ईश्वरसे डरते हैं, उन्होंने तो ऐसा नहीं माना है। पैसा और शैतान परस्पर पूरक हैं। कछ धर्मग्रंथ यह भी कहते हैं कि पैसेके अनेक शत्रु। मैं यह नहीं कहता कि आपको पैसेकी जरूरत ही नहीं है। पैसेकी जरूरत आपको भी है। किन्तु हर चीजकी अपनी जगह होती है और वह वहीं शोभा देती है। जो मनुष्य कोई चीज पैदा नहीं करता उसकी समाजमें कोई जगह नहीं होती। हम पैसेको अनावश्यक महत्त्व देकर अपना महत्त्व भूल बैठते हैं। स्थानभ्रष्ट होकर और पैसेको अनुचित स्थान देकर अपने कर्तव्य-पथसे च्युत हो जाते हैं। पैसेको अनुचित स्थानपर आसीन करके हम दुःख भोगते हैं।

मैने पैसेके सम्बन्धमें इतना कहा, इससे कोई यह न समझ ले कि मैं धनिकोंकी अवगणना या निन्दा करता हूँ या उनका बुरा चेतता हूँ। धनी लोग भी हमारे भाई ही हैं। मैं इनसे भी काम लेना चाहता हूँ। यदि ये लोग अपना स्थान समझकर तदनुसार चलें तो हम उसे सुव्यवस्था ही मानेंगे। आप मजदूर हैं, इसलिए आप पूज्य हैं। जिस देशमें मजदूरोंका आदर नहीं है, जिस देशमें इनकी निन्दा होती है---इनका निरादर होता है---उसका अधःपतन हो जाता है। यहाँ भी उनका निरादर होता है।

किन्तु यह तो संक्रमण काल है। अब बहुतसे लोग समझ गये हैं कि मजदूरोंको ठीक स्थान मिलना चाहिए। मजदूरोंके बिना हिन्दुस्तानका काम नहीं चल सकता। इसलिए उनको कालीपरज या मजदूर कहकर गिराना ठीक नहीं है। उनको ऊँचा उठाना चाहिए। कुछ लोगोंने मजदूरोका शोषण करके स्वार्थ सिद्ध करना अपना धन्धा बना लिया है। ऐसे लोगोंसे मजदूरोंका कोई भला नहीं हआ। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो स्वयं श्रम करते हैं और उसमें रस लेते हैं। वे सुख उठाते हैं। आप ऐसे लोगोंके सम्पर्कमें आते रहते हैं। मैं यह मानता हूँ कि कोई भी मनुष्य कोई त्रुटि या अपराध किये बिना नीचे नहीं गिरता। इसलिए जब हम अपना दोष न देखकर दूसरोंकी निन्दा करते हैं, तब हम और भी नीचे गिरते हैं। मुझे लगता है कि आप लोग कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। आप यह मानते हैं कि आप अपनी स्थितिके लिए उत्तरदायी नहीं है, बल्कि आप दूसरोंको उत्तरदायी मानते हैं। सच तो यह है कि इसका दायित्व किसी दूसरेपर नहीं है। मैं जबसे यहाँ आया हूँ तबसे सबको समझा रहा हूँ कि दोष हमें नीचे गिराते हैं और सत्कर्म, पुण्यकर्म हमें ऊँचा उठाते हैं। प्रश्न यह नहीं है कि रोटी कैसे मिले? मजदूरके सामने यह प्रश्न कभी उपस्थित ही