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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो मैं आपके साथ रहकर तपस्या करूँगा। ईश्वर आपको और मुझे अपनी-अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेका बल दे। अच्छा अब मैं अपना दुखड़ा आपके सामने रो चुका और अपनी आशा भी आपको बता चुका। अब आप जो करना हो सो करें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १९-४-१९२५

२५३. भाषण: बगसरामें

२ अप्रैल, १९२५

बगसराके प्रति मेरे मनमें पक्षपात तो है। मुझे १९०८ में करघे और चरखेका भेद नहीं मालूम था। यद्यपि मैंने उस समय 'हिन्द स्वराज्य' [१] में चरखेकी चर्चा की थी। मैं जब हिन्दुस्तानमें आया तो मुझे हाथसे कपड़ा बुननेका काम शुरू करने में बगसराने सबसे पहले सहायता दी थी। जब मैं यह खोज रहा था कि कोई मुझे एक करघा देनेवाला मिल जाये तब मैंने श्री रणछोड़दास पटवारीको [२] लिखा; उन्होंने मुझे बताया कि मुझे करघा दरबार श्री बाजसुरवालासे मिलेगा और पहला करघा मुझे उन्हींसे मिला। फिर एक करघा और एक आदमी नवाब साहब पालनपुरने दिया। करघा मिलने के बाद जब यह कठिनाई सामने आई कि अब बुनाईका काम कैसे आरम्भ किया जाये; और तब भी मुझे सहायता देने के लिए बगसराके बुनकर ही तैयार हए। बगसरा बुनाईका केन्द्र है और यदि बगसराके बुनकर और व्यापारी इस सम्बन्धमें पर्याप्त उत्साह दिखायें तो वे समस्त काठियावाड़के लिए पर्याप्त खादी तैयार कर सकते हैं।

इसके बाद गांधीजीने काठियावाड़ राजनैतिक परिषद्की २०,००० रुपये इकट्ठा करनेकी योजना समझाई और कहा:

मैं कन्या-विक्रयकी निन्दा किन शब्दोंमें करूँ यह मुझे सूझ नहीं पड़ रहा है। कन्या तो सीधी गायकी तरह है। जो मनुष्य उसका शुद्ध दान करने के बजाय उसे धनप्राप्तिका साधन बनाता और बेचता है वह गोहत्या से भी बड़ा महापाप करता है। जब मैं यह विचार करता हूँ कि चांडाल और अन्त्यज-जैसी जातियाँ किस प्रकार उत्पन्न हुई होंगी तब मुझे लगता है कि अवश्य ही समाजने कन्या-विक्रय करनेवाले लोगोंको बहिष्कृत करके अन्त्यज बना दिया होगा। मैं यह मानता हूँ कि यदि कोई अन्त्यज बनाने के योग्य हो सकता है तो वह कन्या-विक्रय करनेवाला ही हो सकता है; हालाँकि कोई भी मनुष्य और उसके वंशज किसी भी स्थितिमें सदाके लिए अस्पृश्य नहीं बन सकते।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १९-४-१९२५

१. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ६।

२. देखिए खण्ड १३, पृष्ठ १०५ और १०७।