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भाषण: पालीताणामें

के गरीब लोगोंको दो या चार आने जैसी तुच्छ रकम कमानेके लिए राज्य छोड़कर बाहर जाना पड़ता है; इसमें किसकी बदनामी है? मुझे यह कहते खेद होता है कि इसमें राजा और प्रजा दोनोंकी बदनामी है। अगर मेरे वशकी बात हो तो मैं किसीको राज्य छोड़नेकी अनुमति न दूँ। और इस सम्बन्धमें कानून भी बना दूँ। लोग साहसिक उद्देश्यसे भूमण्डलके एक छोरसे-दूसरे छोरतक जाना चाहें तो जायें। आज दुनियाका ऐसा कोई भी कोना नहीं है, जहाँ कोई न कोई काठियावाड़ी न पहुँचा हो। इनमें कुलीन लोग हैं, वाघेले हैं और राजपूत हैं। कर्नल टाडने लिखा है कि राजपू-ताने में कितनी ही थर्मापोलियाँ हैं। किन्तु हम यहाँ काठियावाड़में कितनी थर्मापोलियाँ देखते हैं? लोग लखपति बनने के उद्देश्यसे, भाग्य आजमाने बाहर जाना चाहें तो खुशीसे जायें। वे विद्योपार्जनके उद्देश्यसे विदेश जाना चाहें तो भले ही जायें लेकिन जब कोई काठियावाड़ी यह कहता है कि वे बाहर इसलिए जाते हैं कि उनको यहाँ रोटी नहीं मिलती, तब मुझे दुःख होता है। काठियावाड़में पानीकी कमी है। पानीकी कमी तो दक्षिण आफ्रिकामें भी है; लेकिन वहाँ तो साहसी बोअरोंने पातालतोड़ कुएँखोदकर पानी निकाल लिया है। मैं एक ऐसे कृषिफार्मका [१] सदस्य था जहाँ एक बूँद भी पानी नहीं मिलता था। हमने कठिन प्रयत्न किया और एक कुआँ खोदा जिसमें पानीका छोटा सा सोता निकला और हम उससे १,१०० एकड़ भूमिकी सिंचाई करने में सफल हए। पानी बहुत गहराईतक खुदाई करनेसे मिलता है। हम जितना गहरा खोदेंगे, पानी उतना ही अधिक मिलेगा। खनिज पदार्थोकी तरह ही पानी घरतीके गर्भमें मिलता है। लेकिन यह तो पानीके घोर अभावकी परिस्थिति है।

यदि काठियावाड़के १०० वर्ष पुराने उद्योग-धन्धे फिर जीवित न किये जायेंगेतो इसका अर्थ काठियावाड़के गरीब लोगोंके लिए देश-त्याग ही है। इस स्थितिसे बचनेके लिए यह जरूरी है कि लोग खादी पहनें। हम जबतक खादी, चाहे वह मोटी हो या महीन, न पहनेंगे तबतक हमारा उद्धार न होगा। मैं राजा और प्रजा दोनोंसे अनुरोध करता हूँ कि वे इस साधारण धर्मका पालन करें। ऐसा करने में कोई नुकसान नहीं है। हमें कोई भी इस धर्मके पालनसे रोक नहीं सकता, और इसमें यन्त्रोंकी भी कोई जरूरत नहीं। यह धर्म हमसे आत्मत्याग या तपस्याकी अपेक्षा नहीं करता। इसके लिए केवल हृदय-परिवर्तनकी आवश्यकता है। एक विशेष प्रकारका वस्त्र पहनने-मात्रसे एक बड़े धर्मका पालन हो जाता है। मैं यह देखकर हैरानीमें पड़ जाता हूँ कि हालाँकि मुझे ऐसे अभिनन्दन-पत्र दिये जाते हैं, लेकिन मैं राजा या प्रजाको इस छोटी-सी बातके लिए भी राजी नहीं कर पाता। मैं अन्तरात्माकी आवाज सुनता हूँ और इसलिए मानता हूँ कि मेरी तपश्चर्या में कोई कमी है। फिर भी मैं आशा नहीं छोड़ता। अगर मेरी साधना सच्ची है तो एक समय आयेगा जब सारा भारत खादी पहनेगा।

मैंने जो बात लार्ड रीडिंग और लार्ड विलिंग्डनसे कही थी, उसे मैं फिर दुहराता हूँ। जबतक राजा, रानी, दरबान, अधिकारी, प्रजा और भंगी खद्दर नहीं

१. डर्बनके समीप फीनिक्समें, जिसे गांधीजीने १९०४ में स्थापित किया था, देखिए आत्मकथा, भाग ४, अध्याय १९।