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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बैठा रहे और पड़ोसीको पानीकी सहायता न दे तो मैं मानूँगा कि यह अहिंसाका पालन नहीं है, बल्कि यह हिंसा है। इसी प्रकार अकालके दिनोंमें यदि अकाल-पीड़ितोंको किसी कार्य-विशेषको करनेसे ही खाना मिलता हो तो उनका यह कार्य स्वयं करके दिखाना धर्म है। यदि लोग पानीके बिना प्यासे मर रहे हों; किन्तु कोई भी कुदाली और फावड़ा लेकर कुँआ खोदना न चाहता हो तो साध कुदाली और फावड़ा लेकर उनका मार्गदर्शन करे। उसके सामने इसके अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं रहता। दूसरोंसे खोदनेको कह देना काफी नहीं है। आप चाहे पानीकी एक बूँद भी न पीना चाहते हों, फिर भी यदि आप कुदाली और फावड़ा लेकर तैयार हो जायें और लोगोंको पानी पिलानेके बाद ही दम लें तो यह अहिंसा होगी। उससे पहले पानी पीनेकी आपकी तनिक भी इच्छा भले ही न हो, किन्तु यदि आप लोगोंको पानी पिलानेके बाद स्वयं पानी पी लें तो कोई हर्ज नहीं है। इस प्रकार साधु परहितकी दृष्टिसे कई काम कर सकता है। ऐसा करना उसका धर्म है। इसी प्रकार आज जब हिन्दुस्तानमें भुखमरी फैली है, जब चरखा चलानेसे गरीबोंके पेटमें रोटी जा सकती है और जब प्रत्येक निरुद्यमी मनुष्यके लिए सूत कातना धर्म हो गया है तब साधु सूत न काते और दूसरोंको सूत कातनेका उपदेश दे तो इससे काम कैसे चल सकता है? फिर जो काम उसे स्वयं करने योग्य नहीं लगता उसको लोग भी क्यों करेंगे? इसलिए साधुका तो यह कर्त्तव्य हो गया है कि वह चुपचाप चरखा लेकर बैठ जाये और उसको चलाता रहे। कोई उससे उपदेश लेने आये तो वह उत्तर ही न दे। दुबारा पूछनेपर भी न बोले। अन्तमें मौन भंग करके कह दे, भाई आप भी ऐसा ही करें, मेरे पास देनेके लिए कोई दूसरा उपदेश नहीं है। इसलिए सावधान और जाग्रत साधुका धर्म यही है सम्भव है, कोई साधु इससे अपना स्वार्थ साधने लगे। उस अवस्थामें तो उसका पतन होना उचित ही है। वह निरुद्यमी रहकर संसारमें भार बननेके बजाय उद्यमी बनकर स्वयं अपनी आजीविकाके लिए श्रम करे।

मैं चरम अहिंसाकी बात मानता हूँ। किन्तु यह चरम अहिंसा कैसी है? आज तो साधु गृहस्थोंकी भाँति खाते-पीते और कपड़े पहनते हैं और लोग उनके लिए जो अपासरा [१] बना देते हैं उनमें रहते हैं। इसलिए उन्हें लोगोंके जीवनमें अवश्य ही भाग लेना चाहिए। आज जिस कामको करना देशकी सबसे बड़ी सेवा है उसमें उनको भाग जरूर लेना चाहिए।

मुनिश्री: तब तो यह आपद्धर्म हुआ।

नहीं; यह आपद्धर्म नहीं है, यह तो युगधर्म है। इस युगका धर्म सूत कातना है और जबतक मुनि अपनी दैनिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए समाजपर निर्भर रहता है तबतक उसे अपने आचार द्वारा इस युगधर्मका प्रचार करना ही चाहिए। आज तो आप लोगोंका उत्पन्न किया हुआ धान और उनका पकाया भात खाते हैं और उनके बनाये हुए कपड़े पहनते हैं। जो इधर-उधरसे अनायास उपलब्ध अन्न खा लेता है, जिसे कपड़ेकी जरूरत न रहती हो और जो समाजका सम्पर्क त्यागकर

१. जैन मुनियोंके रहनेके स्थान; उपाश्रय।