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क्या यह असहयोग है?

का 'मैं यदि 'पॉटरी' (कुम्हारगीरी) सीखूँ तो?'

यह है तो उपयोगी। उससे आपको आजीविका मिलेगी और यदि पूँजी होगी और कारखाना खड़ा करोगे तो उससे औरोंकी भी गुजर होगी। पर आप स्वीकार करेंगे कि उसमें आपको कितने ही मजदूरोंका दुरुपयोग करना पड़ेगा, क्योंकि उन्हें कम मजदूरी देकर अपने लिए ज्यादा रुपया बचाना होगा।'

'हाँ, यह तो है ही। पर मैं ठहरा एक शहरी। फिलहाल तो ऐसा प्रतीत होता है कि मैं और कुछ न कर सकूँगा। फिर भी आपकी बातको मैं कभी न भूलूँगा। मुझे आपका आशीर्वाद तो है न?'

'हाँ, हरएक विद्यार्थीको हरएक शुभ कार्यमें मेरा आशीर्वाद है।'

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ५-४-१९२५

२५८. क्या यह असहयोग है?

एक सज्जनने लिखा है: [१]

अगर राष्ट्रीय शालाओंके किन्हीं शिक्षकों अथवा किन्हीं नेताओंने इसमें जैसा लिखा है वैसा आचरण किया हो तो यह बहुत लज्जाजनक और खेदका विषय है। अगर कोई शिक्षक असहयोग करनेके बाद सरकारी नौकरीके लिए अर्जी दे और विफलप्रयत्न होनेपर फिर राष्ट्रीय शालामें अर्जी देकर प्रवेश करे तो वह असहयोगी तो कदापि न माना जायेगा। अगर राष्ट्रीय शालाको यह मालूम हो जाये कि उसने सरकारी नौकरीके लिए अर्जी दी थी तो वह उसे अपने यहाँ न रखे और अगर जरूरत होनेके कारण रख भी ले तो उससे वह शिक्षक असहयोगी तो नहीं कहा जा सकेगा। जिन नेताओंने अपने विदेशी कपड़े तो सँभालकर रख लिए हों और दूसरोंके विदेशी कपड़ोंकी होली जलवाई हो वे उक्त शिक्षकसे भी गये-बीते हैं। उन्होंने अपने देश भाइयोंके साथ दगा की है और फिर भी अपना नेताका पद कायम रखा है। मुझे नहीं मालूम कि शिक्षकों या उन नेताओंने ऐसा आचरण सचमुच किया है या नहीं। उक्त पत्र-प्रेषकने मुझे उनके नाम भी लिखे हैं, लेकिन उनका उपयोग करना मुझे उचित नहीं लगा। नाम लिखने के बावजूद, हो सकता है, पत्र-लेखकको खुद ही धोखा हुआ हो और झूठी खबर मिली हो। ऐसे आरोप मेरे पास बहुत बार आये हैं और निराधार साबित हुए हैं।

लेकिन मान लें कि पत्र-लेखकने जो बातें लिखी हैं, वे सच हैं; फिर भी उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनका तो कोई उचित आधार दिखाई नहीं देता। दो-एक‌ शिक्षक

१. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र लेखकने कई उदाहरण देकर यह दिखाया था कि लोगोंने असहयोग आन्दोलनका साथ ईमानदारीसे नहीं दिया है। उन्होंने गांधीजीको स्वराज्य दलका कार्यक्रम स्वीकार करनेकी भी सलाह दी थी।