पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/४९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही पूरा भरोसा करना है। 'अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं मिलता', यह कहावत इस स्थितिपर पूरी तरह लागू होती है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ५-४-१९२५

२६०. टिप्पणियाँ

अनजानमें अन्याय

भाई अमृतलाल ठक्करने गरीबोंकी सेवा करना अपना जीवन-कार्य बना लिया है; इसलिए उनकी नजर हमेशा गरीबोंकी ओर ही लगी रहती है--चाहे वे भील हों, चाहे भंगी हों और चाहे कोई छोटा-मोटा शुद्ध खादी-भण्डार। अपने इस धर्मके--या कहना चाहें तो अपने इस धंधेके--अनुरूप ही उन्होंने मुझे निम्न पत्र लिखा है [१]:

अगर मैंने जानबूझकर या अनजाने 'नवजीवन' का उपयोग उक्त दोनों भण्डारोंका इश्तिहार करने में किया हो तो मैं अमृतलालजीके इस प्रिय खादी भण्डारका इस्तिहार जानबूझकर करता हूँ, और कामना करता हूँ कि इसकी बिक्री ३,००० रुपयसे ३०,००० रुपये हो जाये। यह आशा कोई बड़ी आशा नहीं है। 'महाभारत' कारने पूछा है: "पुरुषार्थ बड़ा है या भाग्य?" वे किसी निष्कर्षपर नहीं पहुँच पाय; निदान उन्होंने कभी पुरुषार्थको बड़ा दिखाया है तो कभी भाग्यको। अगर इस खादी भण्डारके मालिकों आस्था, उद्योगशीलता और प्रामाणिकता है, तो वे अपने पुरुषार्थसे भाग्यको भी अपने अनुकूल बना लेंगे, और इससे स्वयं उनके भण्डारकी श्रीवृद्धिके साथसाथ वे दूसरे दोनों भण्डारोंकी समृद्धिमें भी सहायक होंगे; क्योंकि हम खादी आन्दोलन के विषयमें यह कह सकते हैं कि अगर किसी शहर में किसी एक सच्चे खादी भण्डारकी भी उन्नति होती है, तो उससे वहाँ चलनेवाले दूसरे सच्चे खादी भण्डारोंकी भी उन्नति अवश्य होगी। मैंने तिरुपुरमें ऐसी बात ही देखी। तिरुपुर एक छोटा-सा नगर है, लेकिन वहाँ पाँच या छः खादी-भण्डार चल रहे हैं। जब खादी लोकप्रिय थी तब सबका धंधा जोरोंसे चलता था। लेकिन जब लोग उसकी ओरसे उदासीन हो गये तब सबका काम ढीला पड़ गया।

सूतके बदले पैसा[२]

ऐसा देखने में आया है कि लोगोंको कांग्रेसका सदस्य बनाते समय कुछ कमेटियाँ सूतके बदले पैसा ही स्वीकार कर लेती हैं। मेरे विचारसे तो यह नियम-विरुद्ध है। ऐसा सुझाव दिया भी गया था कि जो खुद न काते और दूसरेसे भी न कतवाये, वह

१.यहाँ पत्र उद्धत नहीं किया जा रहा है। पत्र लेखकने गांधीजीका ध्यान एक छोटे-से खादी भण्डारकी ओर आकृष्ट किया था, जिसे कोई सज्जन घाटा उठाकर निजी तौरपर चलाते थे। पत्रमें कहा गया था कि गांधीजीने अपने "क्या बम्बई सुप्त है?" शीर्षक लेखमें इसका उल्लेख न करके उसके प्रति अन्याय किया है।

२.देखिए "दो प्रश्न",२-४-१९२५।