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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही छोड़ दूँगा। मैंने ही मताधिकारमें परिवर्तन करनेका सुझाव दिया था और मैंने ही उस नियमका मसविदा तैयार किया था; इसलिए उस विषयमें अध्यक्षकी हैसियतसे कोई निर्णय देना मैं उचित नहीं समझता। उचित तो यही है कि उसपर कार्य-समिति निर्णय दे। लेकिन मुझे आशा है कि इतनी सीधी-सादी-सी बातपर कोई भी मनुष्य कार्य-समितिसे आधिकारिक निर्णय देनेकी माँग न करेगा।

अगला सप्ताह

यह अंक ६ अप्रैलसे पहले-पहले पाठकोंके हाथोंमें पहुँच जायेगा। राष्ट्रीय सप्ताहमें क्या करना उचित है, इतना तो मैंने बता ही दिया है। फिर भी मैं खादी और चरखेपर विशेष जोर देना चाहता हूँ। यह एक ऐसा काम है, जिसे अगर जनता चाहे तो पूरा कर सकती है। अभीतक तो हम कोई भी स्थायी राष्ट्रीय कार्य पूरा नहीं कर पाये हैं। खादीका काम एक ऐसा काम है जिसे अगर हम निश्चय ही कर लें तो पूरा कर सकते हैं। उसमें कोई धार्मिक आपत्ति नहीं हो सकती; ऐसी आपत्ति मैंने कभी नहीं सुनी। यह काम करनेमें कोई कठिनाई नहीं है, क्योंकि हमारे पास इसके लिए साधन तो हैं, सिर्फ इच्छाका अभाव है। और इच्छासे भी अधिक अभाव हममें कार्यशक्तिका है। हम उद्यमी नहीं हैं। भला इस संसारमें उद्यमके बिना क्या कभी कुछ हो पाया है और क्या आगे भी हो पायेगा? यदि हम इतना भी न समझ सकेंगे तो हम कौन-सा बड़ा काम कर सकेंगे? मैंने बहुत बार लोगोंको कहते सुना है सिर्फ मेरे कहनेसे क्या होगा, सब लोग करें तब न? लेकिन दूसरे क्या-क्या करते हैं, इससे हमें क्या मतलब? हम अपना कर्त्तव्य पूरा करें, यही काफी है। अत: मेरी इच्छा है कि इस बातको समझकर हर पाठक अपनी पूरी शक्ति लगाकर खादी-का काम करे।

गुजरातीसे
नवजीवन, ५-४-१९२५

२६१. टिप्पणी

खादीकी विडम्बना

कराचीसे एक मोची भाईने पत्र लिखा है। उसकी भाषामें उसके कुछ अंश नीचे दे रहा हूँ:[१]

ऐसी उलझनें तो आती ही रहेंगी। हर सुधारकको मुसीबतोंका सामना करना पड़ता है। इससे आगामी पीढ़ीका रास्ता साफ होता है। इस मोची परिवारको मैं बधाई देता हूँ।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ५-४-१९२५ (परिशिष्टांक)

१. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है पत्र लेखकने खादीको अपनाने और शादीके वक्त खादी ही पहननेका आग्रह करनेके कारण अपने मार्गमें आनेवाली कठिनाायोंका वर्णन किया था।