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२६३. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

सोमवार [६ अप्रैल, १९२५] [१]

भाईश्री ५ घनश्यामदासजी,

आपका पत्र मीला है। मेरेसे अच्छे होनेकी बात मैंने तो विनोद नहिं समजी थी। मैं उसको सर्वथा उचित समझता हूं। हमारे वडीलसे मित्रसे हम नैतिक बलमें आगे बड़नेकी अवश्य कोशीष करें। मेरे वडीलने जो कुछ नैतिक धन मुझे दीया उसमें वृद्धि करनेकी चेष्टा करना मेरा धर्म है। मैं तो ईश्वरसे हमेशा चाहता हुं कि मेरे मित्रोंको मुझसे अधिक बल दे। इस प्रार्थनाका तात्पर्य तो यही हुआ की मेरे दोषोंसे उनको बचावे। मैं अवश्य चाहता हुं कि आप मेरेसे आत्मबलमें बढ़ें। उसीमें मेरा आपके साथका संगकी सफलता है। ऐसे हि आप चाहें की आपके बलसे मुझे अधिक मीले। यही एक पदार्थ है जिसके लीये स्पर्धा होते हुए द्वेष नहिं हो सकता है।

पुनरलग्नका इशारा मैंने भविष्यमें आप सुरक्षित रहें इसलीये कीया।

आपका,
मोहनदास

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६११०) से।

सौन्जय: घनश्यामदास बिड़ला

२६४. भाषण: माँगरोलकी सार्वजनिक सभामें

८ अप्रैल, १९२५

किसी भी मनुष्यके धीरजकी आखिर एक हद होती है। अब मेरा धीरज भी जाता रहा है। जब मैं देखता हूँ कि अन्त्यज बालिकाओंको वहाँ दूर खड़े होकर गाना पड़ रहा है तब मुझसे चुप नहीं रहा जा सकता। आप लोगोंने देखा होगा कि हर पाँच-पाँच मिनिटपर मेरी नजर उन दूर कोने में खड़े अन्त्यजोंकी ओर जा रही थी। मुझे यह गवारा नहीं हो सकता कि अन्त्यज वहाँ बैठें। यदि अन्त्यज लड़कियाँ वहाँ खड़ी-खड़ी गायें तो कांग्रेस कमेटीकी ओरसे दिया गया वह अभिनन्दन-पत्र आडम्बर-मात्र है। मैं कल कह चुका है कि मैं ढेढ़ हूँ, अन्त्यज हूँ, भंगी हूँ। अपने लिए इन विशेषणोंका प्रयोग करके अपने आपको धन्य मानता हूँ,

१. ३० मार्च, १९२५ को घनश्यामदास बिड़लाको लिखे पत्रके विषयसे स्पष्ट है कि यह पत्र उसके बाद लिखा गया होगा