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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सभाके हकपर अमल करना उन लोगोंको दुःख पहुँचाना है। और मुझे तो जरा भी दुःख नहीं होता, उलटा उससे आपकी मर्यादाकी रक्षा होती है। आपका काम आसान हो जाता है। [१]

अन्त्यजोंके सवालने यहाँ अचानक ही बड़ा रूप धारण कर लिया। इसमें यहाँ जो दो भाग हो गये, उसे मैं शुभ लक्षण मानता हूँ। जो भाई समझदारीसे यहाँसे चले गये हैं, मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। जो सज्जन यहाँ यह सोचकर बैठे रहे कि घर जाकर नहा लेंगे, मैं उन्हें भी धन्यवाद देता हूँ। आप लोगोंने मुझे वहाँ जाने दिया होता तो अच्छा होता। परन्तु जो-कुछ हुआ वह भी बुरा नहीं है। यह सभाका हक है और यदि मैं आपपर दबाव डालता तो भी अहिंसाका लोप होता। जो लोग मुझसे सहमत हैं, मैं उनपर भी इतना अंकुश नहीं लगा सकता। इसलिए जिन्होंने मेरा पक्ष लिया था, मैं उनके आग्रहको समझ गया और यह समझकर कि जो हुआ सो ठीक हुआ, बैठा रहा।

अब मैं विरोध करनेवालोंसे दो शब्द कहना चाहता हूँ। इतने बरसोंसे इस बातकी चर्चा हो रही है, फिर भी आप लोग नहीं चेतते। कितने पतित हो गये हैं हम। यदि कोई ढेढ़ इसी सभामें बैठा होता तो आपको कोई आपत्ति न होती; पर इस सवालको उठानेसे यह आपत्ति खड़ी हुई [२] किसी स्वयंसेवकने अन्त्यजको अन्त्यज समझकर बैठाया होता तो ठीक था, परन्तु यदि उन्हें यह कहकर वहाँ बैठाया हो कि वे अन्त्यज नहीं हैं, तो धोखा दिया है। उसने मुझे धोखा दिया है और जो लोग अस्पृश्यताको धर्म मानते हैं उन्हें भी धोखा दिया है। हम किसीसे जबरदस्ती धर्मका पालन नहीं करा सकते। धर्ममें जबरदस्ती नहीं हो सकती। यदि हो तो वह अधर्म हो जाता है। यदि किसी स्वयंसेवकने ऐसा किया हो तो उसे पश्चात्ताप करके माफी माँगनी चाहिए।

मैं जो बात कह रहा हूँ उसे ये बीच में दखल देनेवाले सज्जन नहीं समझे हैं। आप ट्रेनमें, दफ्तरोंमें, मिलोंमें तथा दूसरी संस्थाओंमें जहाँ अन्त्यज हमारे साथ इकट्ठे होते हैं, वहाँ उनका बहिष्कार नहीं करते। हम मिलोंमें बहिष्कार तो दूर, उनसे काम लेते हैं। फिर भी जो लोग यह मानते हैं कि अस्पृश्यता पाप है और उन्हें उसका निवारण करना चाहिए, उन्हें बेवकूफ मानना और अपनी आँखोंपर पट्टी बाँध लेना, यह न तो मनुष्यता है, न व्यावहारिकता और न बुद्धिमत्ता। मैं आपसे कहता हूँ कि आप थोड़े व्यवहार-कुशल बनें। वैष्णव प्रेमका दावा करते हैं। यहाँ अन्त्यजोंके प्रति वैष्णवोंने कौनसा प्रेम प्रदर्शित किया है? मुझे कुछ अन्त्यज रास्तेमें मिले थे। उन्होंने मुझसे कहा, "हमें कुओंपर पानी नहीं भरने दिया जाता। हमें गड्ढोंमें से पानी भरना पड़ता है?" इसे दया कहते हैं? जिन गड्ढोंमें से पशु पानी पीते हैं और हम कभी नहीं पीते, उनमें से इन लोगोंको पीनेका पानी भरनेके लिए मजबूर करना क्या दया है? यह तो

१. सभामें जिस व्यक्तिने अन्त्यजोंके प्रवेशका अन्ततक विरोध किया था वह समझाने-बुझानेपर सभामें से चला गया। उसके बाद गांधोजीने आगे भाषण दिया।

२. यहाँ सभामें बैठे एक आदमीने आपत्तिकी और कहा, स्वयंसेवकोंने अन्त्यज भीतर बिठाये थे।