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भाषण: माँगरोलकी सार्वजनिक सभामें

निरी निर्दयता है; अधर्म है, पाप और राक्षसीपन है। यह भाव न तो वैष्णव धर्ममें है और न 'भागवत' में वर्णित धर्ममें। यदि यह साबित हो कि ऐसी बात वैष्णव धर्मके धर्मग्रन्थोंमें है तो मुझे ऐसे वैष्णव धर्मकी जरूरत नहीं, इस हिन्दू धर्मकी गरज नहीं। मैंने हड़तालमें भी यही शिकायत सुनी। जिस अन्त्यजको हमारी ही तरह पाँच इन्द्रियाँ मिली हैं और जो हमारी ही तरह पाप-पुण्य करता है, उसके लिए ईश्वरप्रदत्त पानी पीने का भी निषेध है। वह मांसाहार करता है। वह बेचारा तो खुल्लमखुल्ला मांसाहार करता है पर जो लोग छुपे-छुपे मांसाहार करते हैं, उनका हम क्या इलाज करते हैं? हम कन्या-विक्रय करके गोहत्याके समान पाप करते हैं और अस्पृश्यता धर्मका पालन करते हैं। इन 'धर्म' पालनेवालोंके मन में दया नहीं, उनकी नस-नसमें पाखण्ड भरा है, निर्दयता भरी है। 'मनुस्मृति' शौचका नियम इतना ही बताती है कि रजस्वलाको जबतक वह रजस्वला रहे तबतक, चाण्डालको जबतक वह अपना काम करे तबतक न छूना चाहिए। बहत करें तो जिसे सतक लगा हो उसे, चाण्डालको या रजस्वलाको छूकर नहा लें-- यह शास्त्राज्ञा है। फिर यह इतना जुल्म किसलिए? ढेढ़ों और भंगियोंका चारों ओरसे बहिष्कार क्यों? फिर ऐसा करते हुए भी हम नरसिंह मेहताके वंशज होनेका दावा करते हैं और नवकार मन्त्र [१]जपनेका स्वांग करते हैं। जबतक आपका हृदय कोमल हीं बनता तबतक आपका कोई दावा काम नहीं आ सकता। मुझे सारा हिन्दुस्तान कहे कि मैं झूठा हिन्दू हूँ तो भी मैं कहँगा कि मैं सच्चा हिन्दु हँ, झठे तो वे हैं जो अस्पृश्यताको धर्म मानते हैं। मैं तो मरते-मरते भी इस बातको पाप कहूँगा। मुझे मोक्ष तो मिल ही नहीं सकता, क्योंकि इस विषयमें मेरा राग है। लेकिन मैं इसका उन्मूलन करनेवाला हूँ कौन? मैं तो चाहता हूँ कि हिन्दू-धर्ममें से क्रूरता चली जाये, अस्पृश्यता निकल जाये, व्यभिचार हट जाये और पाप नष्ट हो जाये। यह इच्छा मुझमें बनी हुई है और मैं उसीको प्रदर्शित करता चला जाता हूँ। मैं जब विचार-मात्रसे ऐसा कर सकूँगा तब हिमालयकी गोदमें जा बैठूँगा। पर आज तो मेरा जीवन प्रवृत्तिमय है; और इतनी प्रवृत्ति होते हुए भी मुझे जरा अशान्ति नहीं और मैं शान्तिसे सोऊँगा। आप चाहे वैष्णव हों और चाहे शैव हों, आप चाहे कैसे ही हिन्दू हों, किन्तु आपका धर्म तराजूपर तौला जा रहा है। आपको पता नहीं कि संसारके कोनेकोने में पारसी, ईसाई और मुसलमान जानना चाहते हैं कि कौन-सा धर्म सच्चा है, किस धर्ममें अधिक दया है, प्रेम है और किसमें एक ईश्वरकी पूजा है। ऐसे समयमें यदि आपका यह विश्वास हो कि आप हिन्दू धर्मको गन्दले गड्ढे में रखकर उसकी रक्षा करेंगे तो वह व्यर्थ है। आपके ये तिलक-कण्ठी और ये मन्दिर सब तबतक मिथ्या हैं, जबतक आपका हृदय प्रेमसे---मानव-मात्रके प्रति प्रेमसे---सिक्त न हो। इसीसे बहनोंने अन्त्यजोंको यहाँ बुलाने के खिलाफ हाथ ऊँचे नहीं उठाये। इससे प्रकट होता है कि उनमें अभी सत बाकी है। मैंने हिन्दुस्तानमें हर जगह देखा है कि सीधे रास्ते चलनेवाली हमारी बहनें ही है। पर आप क्यों नहीं समझते? आपके ध्यान में यह क्यों नहीं आता कि छ: करोड़ लोग अन्त्यज नहीं हो सकते? मालवीयजी और करवीरपीठके शंकरा

१. जैनियोंका एक मन्त्र।