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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इन प्रयत्नोंसे सम्भव था कि या तो वैद्य अपने तरीकेमें सुधार कर लेते, या मैं उनका इलाज बन्द कर देता या कमसे-कम उनके रोषसे तो बच ही जाता। मैं दूसरे दलोंके लोगोंसे अवश्य ही कुछ समझौते करता हूँ; क्योंकि यद्यपि मैं उनसे सहमत नहीं हूँ तथापि मैं उनकी कार्रवाइयोंको कान्तिकारियोंकी कार्रवाइयोंकी तरह निश्चयात्मक रूपसे हानिकर नहीं समझता। मैंने क्रान्तिकारियोंको 'जहरीले साँप' कभी नहीं कहा है। परन्तु जिस तरह मैं पूर्वोक्त उदाहरणमें बताये गये अपने गुमराह बेटेके बलिदानकी प्रशंसा नहीं करता उसी तरह क्रान्तिकारियोंके बलिदानोंकी, चाहे वे कितने ही बड़े क्यों न हों, प्रशंसा करते हुए कदापि आत्म-विस्मृत नहीं होऊँगा। मुझे इस बातका निश्चय है कि जो लोग बिना अच्छी तरह विचारे या मिथ्या भावुकतासे चोरीछुपे या खुलेआम क्रान्तिकारियोंकी या उनके बलिदानोंकी प्रशंसा करते हैं वे उनकी और उनके प्रिय कार्यको हानि ही करते हैं। पत्रलेखकने मुझसे ऐसे देशभक्तोंके नाम पूछे हैं जो क्रान्तिकारी नहीं थे, किन्तु जिन्होंने अपने देशके लिए प्राण दिये। यह टिप्पणी लिखते समय मुझे दो पूर्ण उदाहरण याद आये हैं। गोखले और तिलकने देशके लिए अपने प्राण दिये। वे देशकी सेवा करते हुए अपने स्वास्थ्यके प्रति प्रायः पूर्णत: उदासीन रहे; इस कारण वे समयसे बहुत पहले चल बसे। फाँसी चढ़नेमें कोई विशेष आकर्षण नहीं है। ऐसी मौत अस्वास्थ्यकर जगहोंमें कड़ी मेहनत मशक्कत करनेवाले आदमीकी जिन्दगीसे आसान होती हैं। मुझे पूरा निश्चय है कि स्वराज्यदलमें और अन्य दलोंमें ऐसे लोग हैं जिन्हें, यदि विश्वास हो जाये कि उनके प्राण देनसे देशका उद्धार हो जायेगा तो वे उसी क्षण अपने प्राण दे देंगे। मैं अपने इस क्रान्तिकारी भाईसे कहता हूँ कि फाँसी चढ़नेसे देशकी सेवा तभी होती है जब फाँसी चढ़नेवाला 'निर्दोष और निष्कलंक' हो।

क्या आप सचमुच यह विश्वास करते हैं कि "भारतका रास्ता यूरोपका रास्ता नहीं है?" क्या इससे आपका अभिप्राय यह है कि यूरोपसे सम्पर्क होनेसे पूर्व भारतमें रण-भावना और सैन्य-संगठनका अस्तित्व नहीं था? किसी अच्छे उद्देश्यके निमित्त युद्ध करना क्या भारतकी भावनाके विरुद्ध है? "विनाशाय च दुष्कृताम्", क्या यूरोपसे आया वचन है? उसे यूरोपसे आया मान भी लें तो क्या आप हठधर्मी के कारण यूरोपकी अच्छी चीज भी न लेंगे? क्या आप यह मानते हैं कि यूरोपमें कोई भी बात अच्छी नहीं हो सकती? यदि उचित कार्यकी सिद्धिके लिए षड्यन्त्र, रक्तपात और आत्मबलिदान भारतके लिए बुरे हैं तो क्या वे यूरोपके लिए भी बुरे नहीं है?

मैं यह नहीं कहता कि यूरोपसे सम्पर्कमें आनेसे पहले भारतमें सेनाएँ और युद्धकला आदि न थीं। पर मैं यह जरूर कहता हूँ कि वह भारतीय जीवनका साधारण क्रम कभी नहीं रहा। यूरोपके लोग युद्धकी भावनासे ओत-प्रोत रहे; किन्तु भारतका जन-साधारण उससे सर्वथा अछूता रहा। मैं पहले कह चुका हूँ कि 'गीता' का, जिससे लेखकने यह श्लोकांश उद्धृत किया है, मैं प्रचलित अर्थसे बिलकुल भिन्न अर्थ करता हूँ।