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एक क्रान्तिकारीके प्रश्न

और उपदेश करने से हमारे पास जब पर्याप्त संख्यामें नेता और अस्त्र-शस्त्र जुट जायेंगे तब हम उन्हें मैदानमें बुलायेंगे ही नहीं, बल्कि जरूरत होगी तो घसीटकर लायेंगे और यह सिद्ध कर देंगे कि वे शिवाजी, रणजीत, प्रताप और गोविन्दसिंहके वंशज हैं। फिर हम कहते रहे हैं कि जनसाधारण क्रान्तिके लिए नहीं है, बल्कि क्रान्ति जनसाधारणके लिए है। क्या इतना इस सम्बन्धमें आपके पूर्वग्रहको दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं है?

मैं न तो यह कहता ही हूँ और न मेरा यह आशय ही है कि यदि जनसाधारणको लाभ न होगा तो क्रान्तिकारियोंको लाभ होगा। बल्कि इसके विपरीत सामान्यतः क्रान्तिकारियोंको लाभ--सामान्य अर्थमें लाभ--होता ही नहीं है। यदि क्रान्तिकारी जनताको न घसीटें, बल्कि अपनी ओर आकर्षित कर सकें, तो वे देखेंगे कि यह खूनी आन्दोलन बिलकुल अनावश्यक है। शिवाजी, रणजीत-सिंह, प्रताप और गोविन्दसिंहके वंशजोंकी बात वैसे तो बहुत मीठी और उत्साहप्रद मालूम होती है। किन्तु क्या यह सच है? क्या हम सचमुच उसी अर्थमें इन वीर पुरुषोंके वंशज हैं जो इन भाईके मनमें है। हम तो उनके देशबन्धु ही हैं। उनके वंशज तो हैं क्षत्रिय लोग--सैनिक वर्ग। हम आगे चलकर चाहे भले ही जाति-व्यवस्थाको तोड़ दें, परन्तु आज तो वह मौजूद ही है और इसलिए इन भाईका यह दावा मेरी रायमें माना ही नहीं जा सकता।

अन्तमें मैं आपसे ये सवाल और पूछता हूँ: गुरु गोविन्दसिंह किसी अच्छे उद्देश्यके लिए युद्ध करना ठीक समझते थे, इसलिए वे क्या भ्रान्त देशभक्त थे? वाशिंग्टन, गैरीबाल्डी और लेनिनके बारेमें आप क्या कहेंगे? कमाल पाशा और डी' वेलेराके बारेमें आपका खयाल क्या है? क्या आप शिवाजी और प्रतापके सम्बन्धमें यह कहेंगे कि वे हिताकांक्षी और आत्मत्यागी वैद्य थे; किन्तु जब उन्हें अंगूरका रस देना था, तब उन्होंने उसकी जगह संखिया दे दिया था? कृष्ण 'दुष्कृतोंके विनाश' के कायल थे; क्या आप इस कारण यह कहेंगे कि उन्होंने यूरोपके लोगोंका विचार अपना लिया था?

यह एक कठिन बल्कि कुछ विषम प्रश्न है। पर मैं इसे टाल नहीं सकता। पहली बात तो यह है कि गुरु गोविन्दसिंह तथा दूसरे उल्लिखित व्यक्ति गुप्त हत्याके कायल नहीं थे। दूसरे, वे अपने काम और अपने आदमियोंको खूब जानते थे; पक्षान्तरमें आधुनिक क्रान्तिकारी नहीं जानते कि उनका काम क्या है? इन देशभक्तोंके पास अपने आदमी थे और एक वातावरण था; किन्तु ये दोनों उनके पास नहीं है। यद्यपि मेरे ये विचार मेरी जीवन सम्बन्धी कल्पनासे उद्भूत हुए हैं, फिर भी मैंने वे इस आधारपर देशके सामने नहीं रखे हैं। मैं तो सिर्फ वक्तकी जरूरतका खयाल करके ही क्रान्तिकारियोंका विरोध कर रहा हूँ। इसलिए उनकी कार्रवाइयोंकी तुलना गरु गोविन्दसिंह या वाशिंग्टन या गैरीबाल्डी या लेनिनसे करना बहुत भ्रामक और भयावह होगा। परन्तु मुझे अहिंसाके सिद्धान्तपर किये गये अपने प्रयोगसे तो यह