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काठियावाड़ियोंसे


लेकिन इस पद्धतिका विशेष लाभ तो यह है कि इस तरह ये परिवार उद्यमी बन जायेंगे और इस तरह उद्यमी बने हुए परिवारोंको अकालका भय न रहेगा । इसीलिए देवचन्दभाई इस योजनाको अकालका बीमा कहते हैं और उनका ऐसा कहना ठीक भी है। इस योजनामें १९,२०० रुपये खर्च होनेका अनुमान है । अर्थात् इससे कार्यकर्ता- ओंमें ८०० मन रुई बाँटी जायेगी; उससे वे खादी तैयार करायेंगे और उसे खपानेकी व्यवस्था भी करेंगे । व्यवस्थाका खर्च इस निश्चित रकममें से ही निकलेगा । यह प्रबन्ध केवल एक वर्षके लिए है। लुढ़ाई, बुनाई और कताई, इन सभी कामोंमें लोग इस योजनासे कमाई करेंगे। इसके परिणामस्वरूप तीस इंच अर्जकी ६७,५०० गज खादी तैयार होगी । उससे मजदूरोंको नीचे लिखे अनुसार मजदूरी मिलेगी : रु० ८०० मन रुईकी लुढ़ाईसे १,००० ८०० मन रुईकी धुनाईसे ४,००० ७०० मन रुईकी कताईसे ७,००० ६७५ मन सूतकी बुनाईसे ६,७५० कुल योग १८,७५० इसमें व्यवस्थाका खर्च शामिल नहीं है । व्यवस्थापर खर्च तो होगा ही; लेकिन वह इतना कम होगा कि उस १९,२०० रुपयेकी रकमसे निकल सकता है। इसकी कुंजी हमें कताईमें मिल जाती है । हमें खादीके उत्पादनमें कताईका खर्च भी तो शामिल करना ही होगा; लेकिन असल में हमें कातनेवालोंको कुछ नहीं देना है । वे अपनी मजदूरी कपड़े की कीमत में शामिल कर लेते हैं । व्यवस्थापकोंको यह रकम एक तरह से बच ही जाती है और उसका मुआवजा वे खादी पहननेवाले कतैयोंको दे देते हैं । वह इस तरह कि यद्यपि उन्हें सेर-भर पूनियोंकी कीमत बारह आने पड़ती है, किन्तु वे उन कतैयोंको छः आने सेर ही बेचते हैं और यद्यपि वे बुनकरोंको प्रति मन दस रुपये बुनाई देते हैं, किन्तु खादी पहननेवाले कतैयोंसे प्रति मन पाँच रुपये ही लेते हैं। मतलब यह कि एक मन सूत कातनेवालेको दस रुपये और मनभर रुई मुफ्त ही मिल जाती है । दूसरे शब्दोंमें कहें तो जिस खादीकी कीमत आज बाजारमें ९३ आने गज है, वहीं खादी उसे, वह अपनी मजदूरी न गिने तो, ३ आने गज पड़ती है। अतः यह आशा की जा सकती है कि ऐसी सस्ती खादी पहननेवाले लोग तो बहुत बड़ी संख्या में मिल जायेंगे । लेकिन पैसा कहाँसे आयेगा ? देवचन्दभाईने संकल्प किया है कि वे या तो एक हजार [ कातनेवाले ] परिवार तैयार करेंगे या पैसा अथवा रुई जुटायेंगे। मैं खुद तो काठियावाड़ में रह नहीं सकूँगा । पैसा या तो देवचन्दभाईको इकट्ठा करना है या मुझे । मुझे भी तो अपना हिस्सा देना ही चाहिए; इसीलिए मैंने पैसा इकट्ठा करनेकी