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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है। यह जिम्मेदारी मैंने काठियावाड़ियों में अपने विश्वासके कारण ही ली है। लगभग ३०० मन रुई देनेका वादा किया गया है। इस तरह १,००० रुपये मिल चुके हैं; बाकीकी रकम अभी इकट्ठी करनी है। किन्तु १,००० रुपये आये हैं तो उससे कुछ ज्यादा खर्च भी हो गये हैं; इसलिए उन्हें नहीं गिनना चाहिए। अतः मेरी माँग अब पूरे १९,२०० रुपयेकी है। यह रकम काठियावाड़ियोंको ही देनी है और पूरी रकम इन दो महीनेमें आ जानी चाहिए। ठीक फसलके महीने ये दो ही है। हमें ८०० मन रुईकी लुढ़ाई हाथसे करानी है। बढवानमें यह काम चल रहा है। हमें इस रुईकी कीमत चुकानी है। लुढ़ाई वैशाखके अन्ततक ही चल सकती है।

भिक्षा तो रुईकी माँगी जा रही है; लेकिन पैसा लेनमें ज्यादा सुविधा होगी। इसके अलावा हम ओटनेके लिए जो कपास खरीदते हैं उसका अधिकांश एक ही जगह मिल जाता है और इसलिए ओटी हुई रुई नरम और पोली होती है। इससे उसकी धुनाईमें गांठबन्द दबी हुई रुईकी धुनाईसे आधी मेहनत ही लगती है। मैंने कुछ रुई तो ऐसी भी देखी है, जो बिना धुने भी काती जा सकती है।

इन सभी सुविधाओंको ध्यानमें रखकर मैं पैसेकी ही मांग करता हूँ। आशा है, मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। जिसे जितना देना हो, उतना भेज दे। उसकी प्राप्ति 'नवजीवन' में स्वीकार की जायेगी। जो लोग हमारे कार्यक्रममें सक्रिय भाग नहीं ले रहे, मैं मानता हूँ, उनपर उस रुपयको देनेकी खास जिम्मेदारी है। हर काठियावाड़ी चाहे वह कहीं रहता हो, अपने सामर्थ्यके अनुसार रुपया अवश्य भेजे। मुझे यह भी बता देना चाहिए कि ऊपर जितनी रकम दी गई है, कमसे-कम उतना खर्च तो होगा ही। यदि प्रस्तावमें बताई गई संख्यामें कताई करनेवाले लोग मिल गये तो ऐसे बहुत-से और परिवार भी तैयार हो जायेंगे। उस हालतमें उन परिवारोंकी आवश्यकताओंकी भी पूर्ति करना काठियावाड़ियोंका कर्त्तव्य होगा। इसलिए वे जितना दे सकें उतना अभी दें। आशा है, 'नवजीवन' के पाठकोंने मेरी अपीलपर मलाबार कोषके सम्बन्धमें जैसी उदारता दिखाई थी, वैसी ही उदारता वे इस सम्बन्धमें भी दिखायेंगे। काठियावाड़की बहुत-सी बहनें काठियावाड़से बाहर रहती हैं। मेरी नजर उनपर तो है ही।

कहनेकी जरूरत नहीं कि परिषद् इस पैसेका पूरा हिसाब देगी और जहाँ-जहाँ रुई बाँटी जायेगी, वहाँ-वहाँ परिषद्के मन्त्रियोंकी देख-रेख में हिसाब रखा जायेगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १२-४-१९२५