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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था, लेकिन मुझे उतना समय नहीं मिल सका था। उस शालाको श्री दूदाभाई चलाते हैं। मैं उन्हें अन्त्यजोंमें बहुत उच्च चरित्रका व्यक्ति मानता हूँ। और मैं उनकी कर्तव्य-परायणतापर मुग्ध ही रहा हूँ। मैं उनकी बेटीको अपनी बेटी मानता हूँ। दूदाभाईके बारेमें उनके अधिकारी जनोंने बहुत अच्छा मत प्रकट किया है। उनकी और मेरी भी बहुत इच्छा थी कि मैं उनके कामको स्वयं अपनी आँखोंसे देखूँ। इसके अतिरिक्त मैंने यह भी सुना था कि अन्त्यजोंके प्रति बोटादके महाजन कुछ उपेक्षाका व्यवहार करते हैं। इसलिए मैंने अपने मनमें यह भी सोचा था कि मैं अन्त्यज शालाके निरीक्षणके अवसरका लाभ उठाकर उन महाजनोंसे भी कुछ निवेदन करूँगा।

शाला तो अच्छी थी ही। विद्यार्थी सफाई और प्रतिभामें किसीसे भी कम नहीं थे। बहुतोंने तो पूरी खादी पहन रखी थी। अन्त्यजोंमें से अधिकांश लोगोंने मांसमदिराका त्याग कर दिया है। उनका एक मन्दिर भी है, जिसे वे बहुत-कुछ आर्थिक कष्टका सामना करते हुए चला रहे हैं। उन्हें कुएँकी दिक्कत है, और घरोंकी भी। राज्यकी तरफसे एक कुआँ बनाया जा रहा है, लेकिन उससे पूरा पानी नहीं मिलता। ऐसी ही कठिनाइयोंमें अन्त्यज गुजारा कर रहे हैं। उनमें से बहुतसे बुनकर हैं।

महाजनोंकी ओरसे एक सार्वजनिक सभा की गई थी। उसमें उपस्थिति खासी थी। किसीने मेरे विचारोंका विरोध नहीं किया। महाजनोंसे मेरी प्रार्थना है कि उनमें से जिन्हें मेरा काम पसन्द न हो, वे अपना विरोध प्रकट करें। अगर वे विनयपूर्वक ऐसा करेंगे तो उन्हें समझाने में मुझे सहूलियत होगी। लेकिन वे किसी भी रीतिसे और किन्हीं भी शब्दोंमें अपना विरोध प्रकट करें, तो भी मैं तो उस सबको सहन करनेके लिए बँधा ही हूँ। मुझे यह बात इसलिए कहनी पड़ती है कि मैं जानता हूँ कि कुछ लोग विरोध करते हैं; इतना ही नहीं, बल्कि उसमें कटुता और अतिशयोक्तिका प्रयोग भी बहुत करते हैं। मेरे कहनेका मतलब यह नहीं है कि अस्पृश्यता निवारणके समर्थक एसा नहीं करते। मगर अतिशयोक्ति और कटुताका होना तो सर्वत्र ही निन्द्य है।

विचार-स्वातन्त्र्य

हमें बोटादसे 'सौराष्ट्र' अखबारके प्रकाशन-स्थान रानपुर जाना था। अगर वहाँसे 'सौराष्ट्र' न निकलता होता तो हम वहाँ जाते या नहीं, इसमें मुझे शक है। भाई अमृतलाल सेठ काठियावाड़ी गीतों, रासों और भजनोंके प्रति मेरे विशेष प्रेमसे परिचित हैं। उन्होंने इनमें रुचि रखनेवाली बहनोंको और एक भजन मण्डलीको निमन्त्रित किया था। उनके भजन और गीत सुनते-सुनते मेरा तो मन ही नहीं भरता था। मैं भजनोंकी मिठास, शब्दमाधुर्य और मजीरोंकी झनकारसे आनन्दविभोर हो गया।

रानपुरके लोगोंने अपना रुईका पूरा हिस्सा दे दिया है। उन्होंने एक चरखा भी देनेका वचन दिया था, लेकिन मुझे कोई अच्छा चरखा नहीं मिला। भाई अमृतलालने एक ऐसा चरखा मेरे सामने ला रखा जो अच्छा माना जाता था। लेकिन वह कोई अखबारका अग्रलेख तो था नहीं, जिसका उन्हें सही ज्ञान होता। चरखेकी माल ऐसी थी कि एक जगह जोड़ते तो तेरह जगह टूटती। तकुएका तो कहना ही