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राजनीति

क्या? वह तो मानो पुराने जमानेका मोटा सूआ था। उसकी गरारी बहुत मोटे खम्भेजैसी थी। फिर भला उससे कितना सूत कत सकता?

मैं चरखेका जानकार था, इसलिए मैंने उसे जैसे-तैसे चला तो जरूर लिया, लेकिन साथ ही मनमें यह भी सोचा कि अगर मैं थोड़ा बहुत पैसा देकर 'सौराष्ट्र' में संचालक बन सकूँ तो बन जाऊँ, और फिर दूसरे संचालकोंके मत अपने पक्षमें करके भाई अमृतलालको तुरन्त इस आशयका एक छोटा-सा नोटिस दिला दूँ कि उन्हें कलमपर जैसी महारत हासिल है, अगर वैसी ही महारत अमुक अवधिके भीतर चरखके सम्बन्धमें हासिल न हो सके तो वे 'सौराष्ट्र' का सम्पादन त्याग दें। लेकिन मेरे नसीबमें कहाँ कि ऐसा दिन मैं देख सकूँ? इसके लिए मुझे पैसा कौन देगा? कोई अमृतलालभाईका द्वेषी मनुष्य पैसा दे भी दे तो दूसरे संचालक मेरी बात मान ही लेंगे, इसका क्या भरोसा? और वे शायद मेरी बात मान भी लें तब अगर कहीं 'सौराष्ट्र' के स्थापना-नियमोंके अनुसार भाई अमृतलाल उसके संस्थापक होनेके नाते संचालकोंकी सत्तासे बाहर हुए तो मेरी क्या स्थिति होगी? इस प्रकार जब एक ओर मैं चरखा चलाते हुए मन-ही-मन इसका बदला लेनकी अनेक योजनाएँ सोच रहा था, तब दूसरी ओर मेरी अहिंसा मुझे ऐसा करनेसे रोक रही थी और साथ ही उसी समय भजन गाये जा रहे थे, उनकी व्यवस्थाका स्मरण करके मेरी बदलेकी भावना तिरोहित हो रही थी।

इसी बीच किसीने 'सौराष्ट्र' को "आशीर्वाद" देनेकी बात कही और मुझे "महात्माजीके चरणोंमें" शीर्षक लेख थमाया। चरखेके सम्बन्धमें अयोग्यताका परिचय देनेके कारण अमृतलालको पदच्युत करनेकी बात तो दूर रही, यहाँ तो मुझसे आशीर्वाद माँगा गया। जलेपर नमक और ऊपरसे काठियावाड़ी विनय। इस जालमें से कैसे निकला जाये, यह समस्या थी। मुझे तो लगा कि मैं प्रवाहमें पड़ गया हूँ, बहा जा रहा हूँ और डूबने ही वाला हूँ। मैंने सोचा "जिसका सम्पादक न कातता है और न कतवाता है; न धुनता है और न धुनवाता है, उस 'सौराष्ट्र' को आशीर्वाद कैसे दूँ?" लेकिन भक्तप्रेमी परमात्माने मुझे उबार लिया। "महात्माजीके चरणोंमें" शीर्षक लेखमें दो-चार वाक्य ऐसे थे, जिनसे मैं आशीर्वाद दे सका, अहिंसा-धर्म निभा सका, सत्यका पालन कर सका, और 'नवजीवन' में कड़वी-मीठी कहते हुए चरखेपर एक लेख भी लिख सका। अगर मैं शुद्ध मनसे आशीर्वाद न दे सकता तो क्या अमृतलालके इन सारे दोषोंको प्रकट कर पाता?

"महात्माजीके चरणोंमें" शीर्षक उक्त लेखमें यह भी कहा गया था कि मेरे विचारोंका विरोध करनेका अधिकार सबको होना चाहिए। मैंने शान्तिपूर्वक और सच्चा विरोध करनेवालोंको तो सदा ही प्रोत्साहन दिया है। फिर मेरे साथियोंमें यह असहिष्णुता कैसे आई? आदि, आदि। ये विचार मुझे अच्छे लगे, और जहाँ मुझसे सिर्फ मुँहसे दो शब्दोंमें आशीर्वाद माँगा गया था; वहाँ मैंने उमंगसे भरकर चार-पाँच वाक्योंमें दे दिया, क्योंकि मैं मानता हूँ कि अगर हम विचार-स्वातन्त्रयको पूरा पोषण न देंगे तो इस देशका विकास कदापि नहीं होगा। चाहे कोई मुझ जैसा तथाकथित महात्मा हो या चाहे साम्राज्य-भोगी जार्ज पंचम हो। लेकिन मामूलीसे-मामूली