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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आदमीको भी उसके प्रति अपने मनका विरोधी भाव प्रकट करनेका अधिकार होना ही चाहिए। यदि महात्मा उस विरोधको शान्ति और विनयसे नहीं सुनता तो वह महात्मा नहीं, क्षुद्रात्मा है और सम्राट् उस विरोधको सहन नहीं करता तो समझना चाहिए कि उसका सिंहासन हिल गया है और उसके सिंहासनसे च्युत होनेका समय आ गया है।

सभीका मत एक नहीं हो सकता। कोई भी सर्वांगपूर्ण नहीं होता। एक ही विषयके सम्बन्धमें विभिन्न विचार विभिन्न दृष्टिकोणोंसे सही हो सकते हैं। लोगोंकी सच्ची उन्नति इसको समझ लेनेपर ही निर्भर है। इसलिए मैंने 'सौराष्ट्र' के कार्यकर्त्ताओंके इन विचारोंको पसन्द ही नहीं किया, बल्कि प्रोत्साहन भी दिया। 'सौराष्ट्र' सच्चे व्यक्ति स्वातन्त्र्यकी शुद्ध और शान्त भावसे रक्षा करता हुआ अमर रहे, भले ही उसे इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिए चरखेका और अन्य वस्तुओंका, जो मेरे जीवनमें अवलम्बरूप बन गई हैं, विरोध ही क्यों न करना पड़े। मैं उस विरोधके बावजूद उसे आशीर्वाद देता हूँ। मैंने इस प्रकार पूरे हृदयसे आशीर्वाद देकर 'सौराष्ट्र' के सभी कार्यकर्त्ताओंको और भाई अमृतलालसे चरखेके लिए आग्रह करनेका अधिकार प्राप्त कर लिया है। अब उन सबको रुई धुननी चाहिए और सूत कातना चाहिए तथा दूसरोंसे भी वैसा ही करनेका अनुरोध करना चाहिए।

चरखा आश्रम

जिस आश्रमको देखने के लिए मुझे सोनगढ़ बुलाया गया था, उसका नाम चरखा आश्रम नहीं है। उसका नाम असलमें 'महावीर रत्न आश्रम' है। लेकिन उसका मुख्य काम चरखे और खादीका प्रचार है। उसके प्रमुख और संस्थापक मुनि श्री चारित्रविजयजी हैं। वे खुद खादी ही पहनते हैं। आश्रममें बहुत-से मकान बन चुके हैं, और कुछ अभी बनने हैं। वह इस हेतुसे स्थापित किया गया है कि उसमें छात्र रखे जा सकें और शिक्षित किये जा सकें एवं जैन साधु भी रखे जा सकें। उसका हेतु जैन साधुओंको धर्मज्ञान देनेके बाद कताई सिखाना भी है। उसमें फिलहाल कुछ साधु नियमित रूपसे सूत कातते हैं। यह देखकर मुझे बहुत हर्ष और आश्चर्य हुआ। मुझे उसमें मुनिश्रीकी धार्मिक उदारता और निर्भीकता दिखाई दी।

इसलिए वहाँ मुझे जो मानपत्र भेंट किया गया, मैंने उसके उत्तरमें अपना विचार बताते हुए कहा कि साधुओंको कताईकी कलामें कुशलता प्राप्त करनेकी आवश्यकता है और उन्हें सलाह दी कि उन्हें ऐसा शुभारम्भ करनेके बाद उसपर दृढ़ रहना चाहिए। मेरा दृढ़ मत है कि आज हर साधु और संन्यासीको चरखा चलाना चाहिए। कोई भी साधु या संन्यासी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। देशके साथ कर्म तो लगा हुआ ही है। खाना, पीना, श्वास लेना, भिक्षार्थ पर्यटन करना और धर्मका व्याख्यान करना ये सब कर्म ही तो हैं। फिर भी ये कर्म साधु संन्यासियोंके लिए त्याज्य नहीं माने जाते, क्योंकि ये तो निष्काम बुद्धि और परमार्थ भावनासे ही किये जाते हैं।

उसी बुद्धि और उसी भावनासे चरखा चलाना भी आज साधु-संन्यासियोंका धर्म है। समाजसे आजीविका पानेके कारण साधु-संन्यासी समाज-सेवा करनेके लिए बाध्य हैं। प्लेगसे पीड़ित लोगोंकी सेवा साधु-संन्यासी न करेंगे तो और कौन करेगा? अगर