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पत्र: पुरुषोत्तम गांधीको

समाधिमें लीन साधु किसीका आर्तनाद सुनकर सहायतार्थ तुरन्त न दौड़ पड़े तो वह साधु साधु नहीं। साधुका कर्त्तव्य है कि यदि वह किसी सांपके काटे मनुष्यको देखे तो सर्प-विषसे अपनी जानका खतरा मोल लेकर भी उसके घावसे विषको चूस कर बाहर निकाल दे। इसी प्रकार उसका कर्त्तव्य यह भी है कि वह लोक-संग्रहके हेतु इस बेकार और भूखसे पीड़ित भारतको उद्यमी बनाने और उसकी भुखमरी दूर करनके लिए चरखा चलाये। जैन साधु चाहें तो चरखा चलाते हुए एकाग्रचित होकर नवकार मन्त्रका उच्चारण कर सकते हैं और इस प्रकार समस्त जगतके साथ एकरूप हो सकते हैं। बहुतसे साधु-संन्यासी तो ध्यानमग्न रहकर मंत्रोंका जप करते हैं; लेकिन उनके मनमें इच्छा न रहते हुए भी दूसरे विचार आते रहते हैं। ऐसा होना सम्भव है। इस स्थितिमें मन्त्रका जाप निरर्थक ही होगा। लेकिन जो साधु चरखा चलाते हुए मन्त्रका उच्चारण करता है, किन्तु मन्त्रके अर्थको आत्मसात् नहीं कर पाता वह जितना सूत कातता है, उतना परोपकार तो करता ही है--उस सीमातक भारतका भूखका कष्ट कम करता है और उसकी सम्पदामें वृद्धि करता है। परमार्थ-प्रवृत्ति ही पूजा है।

इन शब्दों में मैंने मुनिश्रीसे अनुरोध किया कि वे अपने सोच-समझ कर किये हुए निश्चयपर उसका विरोध किया जाने पर भी दृढ़ता-पूर्वक डटे रहें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १२-४-१९२५

२७२. पत्र: पुरुषोत्तम गांधीको

[बम्बई]
रविवार, चैत्र बदी ४ [१२ अप्रैल, १९२५][१]

चि० पुरुषोत्तम,[२]

तुम्हारा पत्र मुझे माणावदरमें मिला था। मेरी कामना है कि तुम दीर्घायु होओ और तुम्हारी समस्त शुभेच्छायें फलवती हों।

मैं आज बम्बईमें हूँ। चि० जमनादास मेरे साथ है। चि० प्रभुदास मुझसे मिला है।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च:]

मैं मंगलवारको जलालपुर ताल्लुकेका दौरा करूँगा।

मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ८९४) से।

सौजन्य: नारणदास गांधी

१. डाकखानेकी मुहरके अनुसार।

२. गांधीजीके भतीजे नारणदास गांधीके पुत्र।