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२७४. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

सोमवार, चैत्र कृष्ण ५ [१३ अप्रैल, १९२५][१]

भाई घनश्यामदासजी,

आपके दो पत्र मीले हैं। आपने तिथि या तारीखका देना छोड़ दीया है। देते रहीयो क्योंकि मेरे भ्रमणमें पत्र मीलते हैं इ [स] से कौनसी तारीखके कौन पत्र है उसका पता बगैर तारीख मुझे नहिं मील सकता।

हकीमजी तो यूरोप गये हैं। मैंने ख्वाजासाहेबको पुछवाया है कि द्रव्य मील गया है या नहिं। आपको कुछ पता मीले तो मुझको बताइये।

जमनालालजी दुकानसे मैंने जांच की तो पता मीला के उनको आपके तर्फसे रु० ३००० [२] अबतक मीले हैं। मुनीमने पहोंच तो दी थी, ऐसा कहते हैं। मीलनेकी तिथि अनक्रमसे १००००की १-११-१९२४ और २०००० को ५-१-२५ है।

यदि दाक्तर लोग आशा बताते हैं तो आपकी धर्मपत्निके मृत्युका भय क्यों रहता है? विकारोंका वश करना मेरे अनुभवमें बहोत हि कठिन तो है हि, परंतु वहि हमारा कर्त्तव्य है। इस कलीकालमें मैं रामनामको बड़ी वस्तु समजता हुं। मेरे अनुभवमें ऐसे मित्र हैं जिनको रामनामसे बड़ी शांति मीली है। रामनामका अर्थ ईश्वर नाम है। [द्वा] दश मंत्र भी वही फल देता है । जिस नामका अभ्यास हो उसका स्मरण करना चाहिये। विषयासक्त संसारमें चित्तवृत्तिका निरोध कैसे हो? ऐसा प्रश्न होता हि रहता है। आजकल जनन मर्यादाके पत्रोंको पढ़कर मैं दुःखित होता हुं। मैं देखता हुं कि कई लेखक कहते हैं कि विषयभोग हमारा कर्त्तव्य है। इस वायुमें मेरा संयमधर्मका समर्थन करना विचित्र सा मालुम होता है। तथापि मेरा अनुभवको मैं कैसे भुलुं? निर्विकार बनना शक्य है इसमें मुझे कोई शक नहिं। प्रत्येक मनुष्यका इस चेष्टाका करना अपना कर्त्तव्य है। निर्विकार होनेका साधन है। साधनोंमें राजा रामनाम है। प्रातःकालमें उठते हि रामनाम लेना और रामसे कहना, 'मुझे निर्विकार कर' मनुष्यको अवश्य निर्विकार करता है। किसीको आज किसीको कल। शर्त यह है कि यह प्रार्थना हार्दिक होनी चाहिए। बात यह है कि प्रतिक्षण हमारे स्मरणमें हमारी आंखोंके सामने ईश्वरकी अमूर्त मूर्ति खड़ी होनी चाहिए। अभ्याससे इस बातका होना सहल है।

मैं बंगाल में प्रथमाको पहुंचूंगा उसी रोज कलकत्ता फरीदपुरके लिये छोडुंगा।

मोहनदासके वन्देमातरम्

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू० ६१११) से।

सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला

१. पत्रमें जिन घटनाओंका उल्लेख है, उनसे स्पष्ट है कि यह पत्र १९२५ में लिखा गया होगा।

२. यहाँ रु० ३०,००० होना चाहिये था।