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टिप्पणियाँ

भी दूरंदेश आदमी दानकी बछियाके दाँत नहीं देखता। बहरहाल, १०,००० स्वयंसेवक भी खासी हौसला बढ़ानेवाली तादाद है। पर मैं मौलाना साहबको याद दिला दूँ कि स्वयंसेवक वही हो सकता है जो सूत कातता हो। यह प्रस्ताव दिल्लीका पुराना प्रस्ताव है--जिसको पुष्टि १९२१ में अहमदाबादकी कांग्रेसमें हो चुकी है। इसलिए मैं ऐसे १०,००० मुसलमान स्वयंसेवकोंसे ही सब कर लूँगा, जो घड़ीके कांटेकी तरह नियमके साथ हर महीने दो हजार गज अच्छा सूत कातते हों। अगर मौलाना साहब १०,००० स्वयंसेवक जमा कर पाये तो मुझे कोई शक नहीं कि उन्हें २५,००० मिलने में भी कोई दिक्कत न होगी। क्योंकि एक बार जहाँ चरखेका आन्दोलन पैर जमा पाया कि फिर उसे गति पकड़ने में देर नहीं लगेगी।

कुछ परिषदें[१]

पिछले सप्ताह मुझे कितनी ही परिषदोंमें शरीक होनेका सौभाग्य मिला। उनके विषयमें यहाँ कुछ विस्तारसे लिखना जरूरी समझता हूँ। उनके नाम हैं सोजित्रा में डा० सुमन्त मेहता-की[२] अध्यक्षतामें होनेवाली पेटलाद जिला किसान परिषद्, धाराला परिषद् अर्थात् बारिया क्षत्रिय परिषद् और वहींपर हुई महिला परिषद् और अन्त्यज परिषद्। बारडोलीके नजदीक वेडछीमें कालीपरज परिषद् भी हुई थी। इन तमाम परिषदोंमें खादी काफी दिखाई पड़ी। किसान परिषद्की एक विशेषता थी, डाक्टर सुमन्त मेहताका यह ऐलान कि यदि एक सालके लिए अपना पूरा समय देनेवाले ४० स्वयंसेवक मुझे मिल जायें तो मैं एक सालतक पेटलाद जिलेसे बाहर जाऊँगा ही नहीं। उनके कहनेकी देर थी कि ४५ से भी अधिक स्वयंसेवक पूरे साल-भर उनके साथ काम करनेके लिए तैयार हो गये। इस परिषद्में दर्शक चार दर्जेंमें विभक्त थे। एक दर्जेमें थे वे दर्शक जिन्हें एक निश्चित तादादमें हाथ कता सूत देनेपर ही प्रवेश मिल सकता था। स्वागत-समितिको परिषद्का बहुत कम खर्च उठाना पड़ा। सभा-मंडप विशाल और आडम्बर रहित था; कुर्सियोंके होनेका तो सवाल ही नहीं उठता। लकड़ी और कपड़ा, खास कर पुरानी खादी मंगनी मिल गई थी। मेहनत लोगोंने स्वेच्छासे मुफ्त कर दी थी। गाँवके एक सज्जनने बाहरी यात्रियोंके खान-पानका इन्तजाम कर दिया था। एक दूसरे महाशयने मेहमानोंका और तीसरे साहबने प्रतिनिधियोंके भोजनका भार अपने ऊपर ले लिया था। यह इन्तजाम सोलहों आने सन्तोषदायक साबित हुआ। प्रोफेसर माणिकरावकी बड़ौदा स्थित व्यायामशालासे आये हुए स्वयंसेवकोंके प्रबन्धने सभामें पूरी शान्ति रखी। सभाकी कार्रवाई मुख्तसिर थी और उसमें कामकी ही बातें हुई। स्वागतसमितिके अध्यक्षका भाषण सिर्फ १५ मिनटका था। उन्होंने अपने छपे हुए भाषणके महत्त्वपूर्ण अंशोंको पढ़कर सुनाया। सभापतिने ३० मिनटसे ज्यादा अपने भाषणके लिए नहीं लिये। सभामें एक भी फिजूल लफ्ज नहीं बोला गया। सभाके पदाधिकारीगण नेता होनेके बजाय सेवक ही अधिक प्रतीत होते थे। प्रस्ताव महज उन्हीं बातोंके सम्बन्धमें थे जो लोगोंको खुद करनी थीं।

 
  1. वहाँसे आगेको सभी टिप्पणियाँ २५-२-१९२५ के नवजीवन में प्रकारान्तरसे दी गई हैं।
  2. गुजरातके एक राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्त्ता।