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टिप्पणियाँ

सन्देह हो गया है, उसके निवारणका व्रत लिये बैठे हैं। मैंने तो उससे हाथ खींच लिया है। इस समय मेरी सलाह काम नहीं दे सकती। मेरी सलाह तो मर्दोके लिए है, कायरोंके लिए नहीं है। यदि कोई गाली दे तो मैं जवाबमें गाली न दूँगा। कोई मुझे मारे तो मैं उसे बदले में मारूँगा नहीं। मेरा यही धर्म है। मैं इसे औरोंको समझा नहीं सकता, इसलिए मैंने यह प्रयत्न छोड़ दिया है। मसलमान भी पागल हो गये हैं। हिन्दू भी पागल हो गये हैं। दोनों एक-दूसरेको छेड़ते हैं। यदि मैं हिन्दुस्तानकी स्थितिका विश्लेषण करता हूँ तो मुझे ज्यादा दोष मुसलमानोंका लगता है; किन्तु क्या इसके कारण मैं उनसे अपनी मित्रता छोड़ सकता हूँ। बाप अपने मनमें बेटेके दोषोंको जानता है; किन्तु क्या वह इस कारण बेटेको छोड़ सकता है? बाप उसे कोसता नहीं। मैं तो उससे यही कहूँगा कि तू वैश्यागामी है और शराबी है; फिर भी तू अच्छा बन। मैं उसे यह तो नहीं कहूँगा कि जाकर समुद्रमें डूब मर। इसी प्रकार मैं मुसलमानोंको नहीं छोड़ सकता। हिन्दू निर्दोष हों और मुसलमान उन्हें छेड़ें तो भी मैं उनके पैर दबाऊँगा। मैं उनसे यही कहता रहूँगा कि तुम जोकुछ कर रहे हो, अधर्म है, वह इस्लाम नहीं है। मैं उनकी लातें खाकर भी यही कहता रहूँगा। मेरी इस सलाहको माननेवाला आज तो कोई है नहीं। किन्तु मैं यह कहकर बैठा हूँ कि किसी न किसी दिन दोनों अवश्य ही एक होंगे; इसके बिना छुटकारा नहीं है। यदि मैं कल मर जाऊँ तो भी जो मनुष्य ऐसा कहेगा, आप उसके पास अवश्य आयेंगे। यह जरूर है कि भय छोड़ देना चाहिए। यह आन्दोलन ही भयको छोड़नेका है। बस, मुझे जो-कुछ कहना था वह मैंने कह दिया। मेरे कहनेका मतलब यह नहीं है कि आप अन्त्यजोको हर वक्त छूते ही रहें। हिन्दू-मुस्लिम एकताके सम्बन्धमें आप दिल साफ कर लें तो काफी है। अन्त्यजोंसे मिलना-जुलना सुगम है। खादी पहनना आपका धर्म है, यह समझना भी मुश्किल नहीं है।

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ७

२७८. टिप्पणियाँ

पत्रलेखकोंसे

मेरे सामने संसारके सभी हिस्सोंसे आये हुए बहुत सारे पत्र पड़े हैं। इनके उत्तर मुझे स्वयं ही देने हैं। जिनके उत्तर मेरे सहायक दे सकते हैं, उन्हें तो काफी जल्दी निबटा दिया जाता है; किन्तु मेरे हिस्सेके पत्रोंका ढेर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है। मुझे ही इनको पढ़कर उत्तर देने होते हैं। इस वर्ष मुझे अन्य वर्षोंकी अपेक्षा बहुत ज्यादा सफर करना पड़ा है। मैं इस पत्र-व्यवहारपर केवल उस फुटकर समयमें ही ध्यान दे सकता हूँ, जो मेरे पास 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' के लिए लेख लिखने के बाद बचता है। इसका परिणाम यह हुआ है कि पत्र इतने इकट्ठे हो गये हैं कि उनका उत्तर देना मेरे वशके बाहर है। यदि मैं किसी कारणसे भ्रमणके अयोग्य