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अभागी बहनें

प्रकट किये। दूसरी चोट मुझे बारीसालमें[१] लगी। वहाँ भी इन बदकिस्मत बहनोंका एक दल मुझसे मिलने आया था। उन्हें चाहे देवदासी कहें, और चाहे कुछ और---समस्या एक ही है। यह अत्यन्त लज्जा, परिताप और ग्लानिकी बात है कि पुरुषोंकी विषय-तृप्तिके लिए कितनी ही बहनोंको अपना सतीत्व बेच देना पड़ता है। पुरुषने, विधि-विधानके इस विधाताने, अबला कही जानेवाली जातिको बरबस जो पतनकी राहपर चलाया है, उसके लिए उसे भीषण दण्डका भागी होना पड़ेगा। जब स्त्रीजाति हम पुरुषोंके जालसे मुक्त होकर अपनी आवाज बुलन्द करेगी और जब वह अपने लिए बनाये पुरुष-कृत विधि-विधानोंके खिलाफ बगावतका झण्डा खड़ा करेगी तब उसका वह बलवा--शान्तिमय होनेपर भी--किसी तरह कम कारगर न होगा। भारतके पुरुष, जिनके पापपूर्ण और अनैतिक भोग-विलासके लिए ये बहनें ऐसी शर्मनाक जिन्दगी बसर कर रही हैं, अपनी इन हजारों बहनोंकी जिन्दगीपर विचार करें। सबसे बढ़कर दयनीय बात तो यह है कि इन घातक और संक्रामक पापागारों पर मंडारानेवाले अधिकांश लोग विवाहित होते हैं, और इसलिए वे दुहरे पापके भागी होते हैं। वे अपनी धर्मपत्नियोंके प्रति भी पापाचार करते हैं, क्योंकि उनके प्रति एकनिष्ठ होनेके लिए वे प्रतिज्ञाबद्ध हैं और अपनी इन बहनोंके प्रति भी वे पाप करते हैं, क्योंकि उनके सतीत्वकी रक्षा करनेके लिए वे उतने ही बाध्य हैं जितने कि अपनी सगी बहनके। यदि हम, भारतवर्षके पुरुष, स्वयं अपने ही गौरवका खयाल करें तो यह पाप एक दिन भी यहाँ नहीं टिक सकता।

यदि हमारे अधिकांश गण्य-मान्य लोग इस पापमें न फँसे होते तो इस तरहका दुराचार, भूखे आदमीके द्वारा चुराये गये केलेके या एक दरिद्र गिरहकट लड़केके अपराधसे कहीं भारी अपराध माना जाता। किसी समाजके लिए ज्यादा बुरी और ज्यादा हानिकर बात क्या है--रुपये-पैसेका या एक महिलाके सतीत्वका लूटा जाना। परन्तु इसपर किसीको यह न कहना चाहिए कि वेश्या तो खुद अपने सतीत्वकी बिक्रीमें भागीहोती है, पर एक धनी मनुष्य जिसकी जेब गिरहकट काट लेते हैं, उस अपराधमें भागीदार नहीं होता। तो मैं पूछता हूँ कौन ज्यादा बुरा है--एक गरीब छोकरा जो जेब काट लेता है या एक बदमाश दुराचारी जो किसीको नशा पिलाकर उसके हस्ताक्षर कराकर उसकी सारी जायदाद हड़प कर लेता है? क्या पुरुष अपनी चालबाजी और हिकमत अमलीसे पहले महिलाओंकी उच्च सद्वृत्तिको नष्ट करके फिर उसे अपने पापकी भागिनी नहीं बनाता है? या क्या पंचमोंकी तरह कुछ स्त्रियाँ पतित जीवन व्यतीत करनेके ही लिए पैदा हुई हैं? मैं हर युवकसे, वह विवाहित हो या अविवाहित, जो कुछ मैंने लिखा है, उसके तात्पर्यपर विचार करनेका अनुरोध करता हूँ। इस सामाजिक रोग, इस नैतिक कुष्ठके सम्बन्धमें मैंने जो-कुछ सुना है, वह सब मैं नहीं लिख सकता। वे उसकी कल्पना करें और जो स्वयं अपराधी हैं, वे शरम और भयसे इस पापसे दूर रहें। हर शुद्ध हृदय व्यक्ति चाहे वह जहाँ भी हो अपने वातावरणको शुद्ध करनेका भरसक प्रयत्न करे। मैं जानता हूँ कि यह

१. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ९३।