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दृष्टिसे वेडछी परिषद्-जैसी भव्य परिषद् मैंने कहीं नहीं देखी। जिसने उस जगहको तजवीज किया और सारी व्यवस्थाकी रूपरेखा बनाई वह जरूर ही कोई कलाविद और कुदरतकी गोदमें पला हुआ व्यक्ति होगा। परिषद्का स्थान एक नदीके किनारे चुना गया था। नदी पेड़ों और पौधोंसे ढके छोटे-छोटे टीलोंकी कतारके बीचमें बहती थी। नदीका पाट रेतीला था, मटीला नहीं। मुख्य सभामंच नदीके बहते पानीपर खड़ा किया गया था। और वह कोई ८ फीट ऊँचा था। रेतसे भरा हुआ एक बोरा सीढ़ीका काम देता था। सभास्थल मंचके सामने ही था। लोग सामनेकी टेकड़ियोंपर भी बैठे हुए थे। सारा मंडप बाँस और हरे पत्तोंसे सजाया गया था। चित्र बिलकुल नहीं लगाये गये थे। सजावटमें कागजका एक भी टुकड़ा या सूतका एक भी धागा काममें नहीं लिया गया था। ऐसी सजावटमें सूतका कोई काम नहीं है और उसके दाम देखते हुए यह फिजूलखर्ची ही है। वितान बाँसों और हरी पत्तियोंका बना था और बड़ा सुहावना लगता था। मंडपके मध्य-मार्गके दोनों ओर कोई १२,००० से ऊपर स्त्रीपुरुष शान्तिके साथ बैठे हुए थे। कोई प्रवेश-शुल्क नहीं था। सभी प्रतिनिधि थे। प्रतिनिधियों और दर्शकोंमें कोई अन्तर नहीं था। (मैं अनुकरण करनेके लिए यह बात नहीं कह रहा हूँ। यहाँ ऐसा अन्तर रखना एक तरहकी निष्ठुरता होती। संगठित संस्थाओंमें ऐसा अन्तर रखना अनिवार्य है)। सभा-स्थानसे कुछ ही दूर टीलोंकी कतारकी तरफ एक किनारेपर एक लंबी पट्टी चरखा प्रदर्शनीके लिए थी। बूढ़े पुरुष, बूढ़ी स्त्रियाँ और ५ से १० साल तकके छोटे-छोटे बच्चे चरखे चला रहे थे। बूढ़े स्त्री-पुरुषों और छोटे बालकोंको ही उसमें लगानेका एक विशेष हेतु था। कात सकनेवाले अधेड़ लोग स्वयंसेवक बनकर सेवा कर रहे थे। वे सब कालीपरज जातिके ही लोग थे। चरखोंकी कतारके पास ही गुजरातमें बनी खादीका भंडार था। आन्ध्रकी बढ़िया खादी वहाँ होनेका सवाल ही न था। खादी पहननेवाले कालीपरज लोग मोटी ही खादी पहनते थे। एक बहुत छोटे हिस्से में देशके नेताओंके चुने हुए चित्र और कुछ साहित्य रखा गया था। इसमें खर्च एक कौड़ीका भी नहीं हुआ था। बाँस और लता-पत्र तो लोगोंके ही थे। वे सारी चीजें ले आये और व्यवस्थापक जैसा बताते गये वैसा बिना कुछ लिये संजोते चले गये। जो हजारों आदमी आये थे उनके खान-पान आदिके लिए किसी इन्तजामकी जरूरत न थी; क्योंकि वे या तो पैदल आये थे या बैलगाड़ियोंमें; और सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन सभा-स्थानसे कोई १२ मील था। लोग घरसे अपने लिए पका खाना या सूखा अनाज बाँध लाये थे। मैदानमें ही, जहाँ जी चाहा, उन्होंने अपना पड़ाव डाल दिया। हर काम बिना शोरगुलके शान्तिपूर्वक हुआ।

सारी कार्रवाई बड़ी स्वाभाविक और अत्यन्त सादगीसे भरी हुई थी। लोगोंके सामने ऐसी कोई बात पेश नहीं की गई जो उनकी जरूरतको पूरा करनेवाली न हो।

उनकी दो प्रतिज्ञाएँ

उनकी यह तीसरी वार्षिक परिषद् थी। सभी परिषदोंमें इने-गिने ही प्रस्ताव स्वीकृत किये गये थे। एक प्रस्ताव शराब न पीनेके बारेमें --इनके बीच शराबखोरी बहुत