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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस सवाल-जवाबका अगर कोई परिणाम हुआ तो यही कि मेरी यह धारणा और भी पुष्ट हो गई कि हमें चमारके धन्धेका अध्ययन करके उसमें जो बुराइयाँ हैं, उन्हें दूर करना चाहिए।

अन्त्यजोंमें दूसरा दोष यह है कि बुनकर ढेढ़, चमारको नहीं छूता और चमार भंगीको नहीं छूता। इस प्रकार अस्पृश्यता उनमें भी प्रवेश कर गई है। इसका अर्थ तो यह होता है कि हमें चमारों, ढेढ़ों, भंगियों आदिके लिए अलग-अलग कुएँ, और अलग-अलग शालाएँ बनानी होंगी। देशके छ: करोड़ अन्त्यजोंके विभिन्न समुदायोंको सन्तुष्ट रखना बहुत मुश्किल है। इसका तो केवल यही उपाय है कि उनमें जो जातियाँ सबसे नीची मानी जाती हैं हम उन्हींका स्पर्श और सिर्फ उन्हींके लिए वहीं काम करें जहाँ उनकी कठिनाइयाँ दूर करना सम्भव है। इससे दूसरी सब कठिनाइयाँ अपने-आप दूर हो जायेंगी।

इन दोषोंके लिए उच्च वर्णके माने जानेवाले हिन्दू लोग ही जिम्मेवार हैं। उन्होंने अन्त्यजोंका सर्वथा त्याग कर दिया और उन्हें आगे बढ़नेको अवसर नहीं दिया, जिससे वे बहुत गिर गये। हमारी उन्नति उन्हें सहारा देकर खड़ा करनेपर ही है। खुद नीचे उतरे बिना किसीको उठाया नहीं जा सकता। उन्हें उठानेसे हिन्दू जाति ऊपर उठेगी।

आदर्श गाँव

अमरेलीसे कुछ दूर स्थित चलाला गाँव है। यह बहुत अंशोंमें एक आदर्श गाँव है। उसमें सुबह-सुबह एक सभा की गई। सभामें बहुत शान्ति और सुव्यवस्था रही। चलालाके लोगोंने स्वयं अपने उद्योगसे सड़कके दोनों ओर पेड़ लगाये हैं, और सींच कर बड़े किये हैं। इसीलिए मैंने वहाँ नीमके ऐसे सुन्दर पेड़ देखे, जैसे इस इलाकेमें और कहीं नहीं देखे थे। वहाँ एक पाठशाला है, जो बहुत अच्छी तरह चल रही है। उसमें अन्त्यजोंको खुला प्रवेश प्राप्त है। इस सभामें अन्त्यज दूसरोंसे घुल-मिल कर बैठे थे। चलालामें खादी कार्यकी भी शाला चलती है। वहाँ लोग कुछ कताईका काम भी करते हैं। खादी बहुत कम लोगोंने पहन रखी थी। लेकिन जब मैंने प्रतिज्ञा लेनेकी बात कही तो उसमें से बहुतोंने हाथ उठाये। इस सब सुधारका श्रेय सिर्फ चार-पाँच लोगोंको है। मुझे लोगोंने बताया कि इनमें हरगोविन्द मास्टर और उनकी बहन मणि मुख्यत: उल्लेखनीय हैं, क्योंकि उन्होंने इस दिशामें अनवरत परिश्रम किया है। चलालाको देखकर ही इस बातकी प्रतीति हो सकती है कि एक-दो लोगोंके शुद्ध और सुदीर्घ प्रयत्नसे भी कितना कार्य हो सकता है।

काठियावाड़का रुई-कोष

मैंने अपने जिम्मे १९,२०० रुपये उगाहनेका जो काम लिया है, उसकी असली शुरुआत माँगरोलसे की। ऐसा माना जा सकता है कि वहाँ खासी मात्रामें उगाही हुई। मुझे सभी दानी भाइयोंके नाम तो याद नहीं हैं; लेकिन वहाँसे लगभग दो हजार रुपये मिले हैं। मुझे उम्मीद है कि माणावदरमें भी इससे कम रुपया नहीं