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टिप्पणियाँ

मिलेगा। हम लोग जब माणावदरसे रवाना हुए तबतक भी चन्दा इकट्ठा किया जा रहा था। इसलिए मैं माँगरोल और माणावदरके सम्बन्धमें अधिकृत आँकड़े अगले हफ्ते देनेकी उम्मीद रखता हूँ। जिन्होंने 'नवजीवन' पढ़कर चन्दा भेजा है, उनके नाम नीचे दे रहा हूँ:

पी० एम० पारपिया१०० रु०

विट्ठलदास जेराजाणी१११ रु०

मैं यह टिप्पणी यात्राके दौरान लिख रहा हूँ। इसलिए जो रकमें सीधे मेरे पास आई हैं, मैंने उन्हींको यहाँ सूचित किया है।

कमजोर नौजवान

हममें कुछ ऐसे नौजवान हैं जो सब तरहसे नाजुक हो गये हैं-- शरीरसे भी नाजुक और मनसे भी नाजुक। इनमें से कुछ नौजवानोंने मेरा "क्या यह असहयोग है?" शीर्षक लेख [१] पढकर मझे पत्र लिखे हैं। उनका आशय यह है कि मैंने असहयोगियोंसे उनकी बात नहीं सुनी और उसे समझनेकी कोशिश नहीं की और इस तरह उनके प्रति अन्याय किया है। पत्र लिखनेवाले मानते हैं कि मेरी आलोचना उनपर लागू होती है। मैं तो बिलकुल नहीं जानता कि वह किनपर लागू होती है। मैंने यह लेख किसीको लक्ष्य करके नहीं लिखा। मैंने तो सिर्फ आलोचकोंकी चिट्ठियोंको आधार बनाकर कुछ भ्रमोंका निराकरण किया है। मैंने अपनी आलोचनामें ऐसा एक भी वाक्य नहीं लिखा है जिससे यह मालूम हो कि मैंने चिट्ठियोंमें कही गई बातें मान ली हैं। मेरे पास जब भी कोई ऐसा पत्र आता है जिसमें किसी व्यक्ति-विशेषकी आलोचना हो और उसे पढ़कर मेरे मनमें शंका उठती है तब मैं आमतौरपर पहले उस व्यक्तिके सामने अपनी शंका रखता हूँ और उसके बाद मुझे जोकुछ कहना होता है, वह कहता हूँ। इस प्रसंगमें तो मझे एकके अलावा कोई दूसरा नाम याद भी नहीं आता। मेरा लेख बिलकुल निष्पक्ष और तटस्थ था। फिर समझमें नहीं आता कि पत्र लिखनेवालोंने यह कैसे समझ लिया कि मेरी आलोचना उन्हीं के सम्बन्ध में है। वे वास्तवमें मेरी आलोचनाके पात्र हैं, तब तो उन्हें दुःखी होनेका कोई कारण ही नहीं, और पात्र न हों तो उन्हें समझना चाहिए कि वह आलोचना उन्हें लक्ष्य करके की ही नहीं गई है।

पत्र लिखनेवाले भाई ऐसा न समझें कि यह स्पष्टीकरण भी मैं उन्हींके लिए कर रहा हूँ। यह स्पष्टीकरण तो हमारी आम तुनुकमिजाजी और रूठने-मचलनेकी प्रवत्तिको लक्ष्य करके किया गया है। सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओंको यह समझना चाहिए कि उनकी आलोचना तो होगी ही। उसे शान्तिसे सहन करना लोकसेवकका एक आवश्यक गण है। जो दूसरे लोग आलोचना करते हैं, वे भी शुद्ध मनसे ही वैसा करते हैं। उसमें अपवाद होते हैं, यह सच है; और कुछ लोग द्वेष-भावसे भी आलोचना

१. देखिए "क्या यह असहयोग है?", ५-४-१९२५।