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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते हैं। लेकिन उन्हें उसे भी सहन करना चाहिए। मेरी आलोचना तो आम ढँगकी और स्थिति-विशेषके सम्बन्धमें थी और है।

प्लेग

जब मैं काठियावाड़की पिछली यात्रा समाप्त करके लौट रहा था तब रास्ते में राजकोट आया। स्टेशनपर आये हुए भाइयोंसे मिलनेपर मालूम हुआ कि राजकोट तो प्लेगके कारण लगभग खाली हो गया है। इस तरह भयके कारण अपना स्थान छोड़ देना ठीक है या सफाईके नियमोंका पालन करके तथा दूसरे उचित उपाय करते हुए अपने स्थानपर बना रहना ठीक है, इसके विवेचनमें मैं अभी नहीं पड़ूँगा। लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि राजकोट-जैसे शहरको प्लेगसे सर्वथा मुक्त रखने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

लेकिन जिस बातको सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ वह यह थी कि लोग प्लेगके मृतकोंका दाह-संस्कार करनेसे भी डरते हैं और वह काम सेवा समिति या राज्यको करना पड़ता है। आदमीको मौतका डर चाहे कितना ही क्यों न हो, किन्तु वह अपनोंकी सार-संभाल करनेके लिए तो बँधा ही हुआ है। मृतकोंका दाह-कर्म करना उसका धर्म है। अगर लोग इस तरह अपने-अपने सामान्य धर्मका भी पालन न करेंगे तो समाजकी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जायेगी और समाज नष्ट हो जायेगा।

मुर्दा गाड़ी

इस समय भाई छोटालाल तेजपालकी मुर्दा गाड़ीवाली बात याद आती है। वे तो अपनी गाड़ीके पीछे पागल बन गये हैं। जिस प्रकार में चरखेको देशकी समस्याका एक-मात्र हल समझता हूँ, उसी प्रकार वे अपनी मुर्दा गाड़ीकी योजनाको सबसे अधिक महत्त्वकी बात मानते हैं। लेकिन हम उनकी अतिरंजनाका अथवा उनके पागलपनका खयाल न करें। वे जो बात कहते हैं, उसमें जितना सत्य है, हम उसीपर विचार करें। उनकी दलील यह है कि मुर्दोको कंधोंपर उठाकर ले जाना बहुत कष्टकर होता है, उसमें कई लोगोंकी जरूरत होती है और बहुतसे गरीब लोगोंके लिए तो वैसा करना लगभग असम्भव ही है। इसलिए उनका कहना है कि मुर्देको मुर्दा गाड़ीमें ले जाना ही ठीक है। उन्होंने उसी खयालसे राजकोटमें एक मुर्दा गाड़ी रखी है और वे उसका निःशुल्क उपयोग करने देते हैं। हर मौकेपर मुर्देको मुर्दा गाड़ीमें ही ले जाना चाहिए या नहीं, हम इस प्रश्नको अभी तो छोड़ ही दें, लेकिन, इस तरह प्लेग-जैसे महारोगके समय जब लोगोंकी बहुत कमी रहती है और मुर्देको उठानेवाले लोगोंको खतरा भी रहता है, तब जरूरत पड़नेपर मुर्दा गाड़ीका निस्संकोच उपयोग करना समझदारीकी बात है। मुर्दे को कंधे पर ही ले जाना चाहिए, यह कोई शास्त्र का आदेश नहीं है। यह तो सिर्फ रिवाजकी बात है। जहाँ श्मशान बहुत दूर हो, सख्त गर्मी पड़ती हो, और कंधा देनेवालोंकी कमी हो, वहाँ मुर्दा गाड़ी बहुत मददगार होती है। भाई छोटालालने जिस मुर्दा गाड़ीका प्रबन्ध किया है, उसे आदमी ले जा सकते हैं। उसे खींचनेके लिए घोड़ा वगैरा रखनेकी जरूरत नहीं है। उसे एक