पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/५६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५३१
पुनः वर्ण-व्यवस्था

मूर्ति ही है। वह जनताकी दरिद्रतामें सम्मानका सुयोग करता है; क्योंकि उसके द्वारा उसकी हीनताका नाश हो जाता है। चरखा तेजीसे आगे बढ़ रहा है--अलबत्ता उतनी तेजीसे नहीं जितना हमारी प्रयोजन-सिद्धिके लिए आवश्यक है, उतनी तेजीसे भी नहीं, जितना विदेशी कपड़ेको देशसे हटानेके लिए जरूरी है।

पर निराश होनेका तो कोई कारण ही नहीं। चरखा तूफानोंका सामना करेगा और उनमें से सही सलामत निकलेगा और मेरे पास तो भारतके स्वातन्त्र्य संग्राममें जूझनेके लिए सत्य और अहिंसाके सिवा दूसरे कोई साधन ही नहीं हैं। इसलिए मैं तो चरखेपर ही अड़ा रहूँगा। अत: यद्यपि आज सामुदायिक सविनय अवज्ञा व्यावहारिक दृष्टिसे असम्भव है तथापि वैयक्तिक सविनय अवज्ञा तो किसी भी दिन की जा सकती है। पर उसका अभी समय नहीं आया है। क्षितिजपर बहुतसे काले और खतरनाक बादल छाये हैं। हमारी भीतरी कमजोरियाँ हैं, जो सिर उठा रही हैं और हमें दबा लेना चाहती हैं। चरखेमें, अस्पृश्यता-निवारणमें और हिन्दू-मुस्लिम एकतामें पूरा विश्वास करनेवालोंकी निष्ठाकी कसौटी अभी होनी है ताकि निश्चिन्त रूपसे मालूम हो सके कि कौन कितने पानीमें है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २३-४-१९२५

२९८. पुनः वर्ण-व्यवस्था

एक पत्र-लेखक लिखते हैं: [१]

आपने अपने हालके मद्रासके भाषणमें [२] चतुर्वर्ण-व्यवस्थामें अपना विश्वास पुनः व्यक्त किया है। किन्तु क्या वर्ण सर्वथा आनुवंशिक होने चाहिए? कुछ लोग कहते हैं कि आप आनुवंशिकताके सिद्धान्तका दृढ़तासे पालन करनेके पक्षमें हैं, कुछका खयाल है कि आप इस पक्षमें नहीं है। आपके लेखोंका अवलोकन करनेके बाद मुझे भी पहले पक्षका विचार ठीक लगता है। उदाहरणके लिए, आपकी उक्ति है कि अछूतोंको शूद्रोंके वर्णमें शामिल किया जाना चाहिए और उन्हें सभी अब्राह्मण सुलभ अधिकार दिये जाने चाहिए। इसका और क्या मतलब हो सकता है? ब्राह्मण और अब्राह्मणके बीचके पुराने और मनमाने भेदभावको बनाये रखनकी बात निरन्तर क्यों दोहराई जाती है। मानो वे दोनों जैविक शास्त्रकी दृष्टिसे दो भिन्न जातियोंके प्राणी हों? यदि एक अछुत अब्राह्मण वर्गमें आ सकता है, तो क्या वह इसी जीवनमें ब्राह्मण नहीं बन जा सकता? फिर यदि एक अछूतका शूद्र बन जाना सम्भव है तो इसी जन्ममें

१. अंशत: उद्धृत।

२. देखिए "भाषण: मद्रासकी सार्वजनिक सभामें", २२-३-१९२५।