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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एक शूद्रका वैश्य बन जाना और वैश्यका क्षत्रिय बन जाना या क्षत्रियका ब्राह्मण बन जाना क्यों असम्भव है? जो लोग इसे सम्भव मानते हैं, आप उनके सम्मुख कर्मके सिद्धान्तकी बात क्यों उठाने लगते हैं? क्या एजवाहा जातिके श्री नारायण गुरु स्वामीसे भी बढ़कर कोई ब्राह्मण कहीं है? मैं तो बनिया गांधीसे बढ़कर ब्राह्मण किसीको भी नहीं मानता। मैं ऐसे सैकड़ों अन्य अब्राह्मणोंको भी जानता हूँ जो (ब्राह्मण शब्दके अच्छेसे-अच्छे अर्थमें) बहुतसे जन्मजात ब्राह्मणोंको अपेक्षा अधिक अच्छे हैं।

यदि आप आनुवंशिकताके सिद्धान्तको सस्ती के साथ लागू करने के पक्षमें न होते तो आप एक ही जातिके, एक ही धर्मके और एक ही तरहके रीतिरिवाजोंको माननेवाले लोगोंके, जैसे कि तीनों द्विजातियोंके लोगोंके, बीच अन्तजर्जातीय विवाहोंको वर्जित न ठहराते। और तब न आप सहभोजोंका, जैसे शाकाहारी ब्राह्मणों और शाकाहारी अब्राह्मणोंके बीच परस्पर खान-पानके सम्बन्धका, इतना उग्र विरोध करते।

यह सच है कि आनुवंशिकता जीवनका एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण नियम है, परन्तु उसकी रहस्यपूर्ण प्रक्रियाओंको नियन्त्रित करनेवाले कुछ नियम हैं, जो उससे कहीं महत्त्वपूर्ण है। एक नियम है जिसे जैविक शास्त्रके विकासवादी सिद्धान्तको भाषामें विविधताका नियम कहा जाता है। आनुवंशिकता स्थिर चीज है और विविधताका नियम विश्वका एक गतिशील नियम है। ज्यादा अच्छे शब्द के अभावमें हम जिसे "प्रगति" कहते हैं, उसके पीछे मूल शक्ति या प्रेरणा इसी विविधताके नियमकी रहती है। सामाजिक व्यवस्था कोई भी हो, वह आनुवंशिकताके नियमकी अवहेलना नहीं कर सकती, यदि करेगी तो उसे हानि उठानी पड़ेगी और न ही कोई सामाजिक व्यवस्था विविधताके नियमकी ही अवहेलना कर सकती है, यदि करेगी तो उसे खतरा उठाना पड़ेगा। भारतमें वर्ण-व्यवस्थाका इतिहास इसका पर्याप्त साक्षी है।

मैं समझता हूँ कि पत्र-लेखकने वर्णाश्रम-धर्मके खिलाफ जितने भी तर्क दिये हैं, मैं उन सबका उत्तर पहले दे चुका हूँ। परन्तु पाठक स्पष्ट ही जो-कुछ पढ़ते हैं, उसे भूल जाते हैं या फिर जिन पाठकोंका उस समय जिस समाचारसे सम्बन्ध होता है, वे उसमें से अपने मतलबकी चीजको पढ़ लेते हैं। उदाहरणके लिए, मैंने इस तरह कई बार वर्ण-व्यवस्था और अस्पृश्यतामें क्या भेद है, सो बताया है। एकको तो मैंने एक तर्क-संगत वैज्ञानिक तथ्य कहकर उसका समर्थन किया है और दूसरीको निरर्थक परिवर्धन और सर्वथा हानिकर वस्तु कहकर त्याज्य बताया है। यह हो सकता है कि मोटी अक्ल होने के कारण मुझे वहाँ भी भेद दिखता हो जहाँ कोई भेद है ही नहीं। यह भी हो सकता है कि मैं अज्ञान या अन्धविश्वासको ही ज्ञान समझ रहा होऊँ। किन्तु मैं निश्चित रूपसे वर्ण-व्यवस्थाको जन्मके आधारपर किया गया स्वस्थ कार्य-विभाजन मानता हूँ। जातियोंके बारेमें आज जो धारणाएँ प्रचलित हैं वे सभी वर्ण-व्यवस्थाकी मूल कल्पनाकी विकृतियाँ ही हैं। किसी वर्णके उच्च या किसीके