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पुनः वर्ण-व्यवस्था

नीच होनेका मेरे दिमागमें कोई सवाल ही नहीं उठता। यह तो शुद्ध रूपसे कर्त्तव्यका ही सवाल है। यह ठीक है कि मैंने कहा है कि वर्णका आधार जन्म है, किन्तु मैंने यह भी कहा है कि शूद्रका वर्णान्तर होना---जैसे वैश्य बन जाना, सम्भव है। किन्तु वैश्यका कर्त्तव्य पालन करने के लिए उसे अपने-आपको वैश्य कहलाना जरूरी नहीं है। स्वामी नारायण गुरु संस्कृतके विद्वान माने जा सकें, वे विद्वान तो बताये ही जाते है, उसके लिए उनका ब्राह्मण कहा जाना आवश्यक नहीं। जो ब्राह्मणका कर्त्तव्य पालन करता है वह दूसरे जन्ममें आसानीसे ब्राह्मण बन जायेगा। किन्तु वर्तमान जन्ममें एक वर्णके बदलकर दूसरे वर्णमें जानेसे निश्चय ही एक बड़े पैमानेपर धोखेबाजी चल पड़ेगी। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि वर्णोका अस्तित्व ही नहीं रह जायेगा। मुझे वर्णों को समाप्त करनेका कोई औचित्य नजर नहीं आता। हो सकता है कि यह व्यवस्था भौतिक समृद्धिके मार्गमें बाधास्वरूप हो। मैं धार्मिक विचारोंपर आधारित किसी संस्थाको भौतिक समृद्धिकी दृष्टिसे देखनके पक्षमें नहीं हूँ। इसके लिए मैं अवश्य ही क्षमा चाहता हूँ।

पत्र-लेखकने जो उपमान चुना है वह भी अनुपयुक्त है। मैंने कहा है कि पंचमोंको शूद्र मानना चाहिए, क्योंकि मेरे विचारसे कोई पंचम भी वर्ण है, यह विश्वास करनेके लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता। पंचम शूद्रका ही काम करता है, और इसीलिए जब उसे पंचम न माना जाये तो फिर वह शूद्रके वर्गमें ही तो रखा जा सकता है। मेरा निश्चित विश्वास है कि अस्पृश्यता और वर्ण-व्यवस्थाके सम्बन्धमें इस तरहकी भ्रान्त धारणाओंके निरन्तर मौजूद रहने और एक ही साथ इन दोनोंपर निरन्तर आक्षेप करते जानेसे अस्पृश्यता सम्बन्धी सुधारोंकी प्रगतिमें बाधा पड़ती है।

अब इससे स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था किसी भी तरहसे विविधताके नियमके प्रतिकूल नहीं पड़ती। इतना ही नहीं वर्ण-व्यवस्थामें इस नियमके लिए गुंजाइश भी है। बात सिर्फ इतनी है कि यह विविधता कुछ वर्षों या पीढ़ियोंमें घटित नहीं होती। ब्राह्मण और परियामें कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। किन्तु जो अन्तर देखना ही चाहता है, उसे वर्णके रूपमें ब्राह्मणों और परियाओंमें भारी अन्तर दिखाई पड़ता है और इसी तरह चारों वर्गों में भारी अन्तर दिखाई पड़ता है। मैं जिस बातमें इस पत्र-लेखकका सहयोग चाहता है वह है उच्चताकी भावनाके विरुद्ध संघर्ष, फिर वह भावना ब्राह्मणोंमें हो, चाहे किसी अन्यमें। हमें स्वयं वर्ण-व्यवस्थाका नहीं, बल्कि उसके दुरुपयोगका विरोध करना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २३-४-१९२५