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३०८. गुजरातकी सड़कें

स्थानीय निकायोंका इन्तजाम धीरे-धीरे कांग्रेसजनोंके हाथोंमें आता जा रहा है। उसका सुफल लोगोंको मिलना चाहिए। यह दो तरहसे मिल सकता है। एक तो सड़कोंके सुधारके रूपमें और दूसरे, बच्चोंकी शिक्षाके रूपमें। सभी मानेंगे कि मैं गुजरातकी सड़कोंपर बहुत चला हूँ। मैं खेड़ा, भड़ौंच, सूरत, पंचमहाल और अहमदाबाद, इन तमाम जिलोंकी अधिकांश सड़कोंपर यात्रा कर चुका हूँ। लेकिन ये सभी सड़कें कमोबेश खराब ही मानी जायेंगी। उनपर बेहद धूल होती है। कह सकते हैं कि गाँवोंमें तो सड़कें होती ही नहीं। इससे आदमी और जानवर, दोनोंको बहुत तकलीफ होती है। मैंने यह शिकायत सुनी है कि स्थानीय निकायोंके पास पैसा नहीं होता। इस शिकायतमें बहुत-कुछ सच्चाई हो सकती है। पैसा कैसे आ सकता है, मैंने इस बातपर तो विचार नहीं किया है। लेकिन जिनका काम ही सड़कें बनवाना और उनकी मरम्मत कराना हो, उनके पास उसके लिए साधन न हों और जुटाये भी न जा सकते हों तो उन्हें त्यागपत्र दे देना चाहिए।

यही बात शिक्षाको व्यवस्थाके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है। हमें शिक्षाका नया रास्ता ढूँढ़ना ही होगा। खेतिहरोंके लड़कोंको तो मुख्यतः गाँवोंकी शालाओंमें ही जाना चाहिए। उन्हें बाबू या मुन्शी नहीं होना है, और न उन्हें कोशिश ही करनी चाहिए। इसलिए उन्हें उनके धन्धेके अनुरूप ही शिक्षा दी जानी चाहिए। जबतक बालकोंकी शिक्षाका सम्बन्ध उनके वातावरणसे नहीं जुड़ेगा तबतक समाजपर शिक्षाका पूरा अथवा अच्छा असर न पड़ेगा। जहाँ समुद्र न हो, ऐसे प्रदेशमें रहने वाले लोगोंको समुद्र-सम्बन्धी शिक्षा दी जाये तो उस प्रदेशको उसका कोई लाभ न मिलेगा, और इस कारण वह व्यर्थ जायेगी। कुछ ऐसी ही बात हमारे बालकोंकी शिक्षाके विषयमें भी कही जा सकती है। शहरके बालकोंकी शिक्षा व्यर्थ हो तो उससे मुख्य हानि शहरोंकी ही होगी, लेकिन करोडों खेतिहरोंके बालकोंकी शिक्षा व्यर्थ होगी तो सारा भारत तबाह हो जायेगा। ये करोड़ों बालक, बाबू या मुन्शी नहीं बन सकते और यदि ये खेतीके कामके न रहें तो खेती कौन करेगा? इसलिए स्थानीय निकायोंके लिए यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २६-४-१९२५