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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं, क्या वे ७५ रुपये मासिक वेतन ले सकते हैं?" इस वाक्यका इस प्रश्नसे कोई सम्बन्ध नहीं है कि गरीबोंके पास यह पैसा पहुँचता है या नहीं। लाखोंकी व्यवस्था वेतन-भोगी लोग करें, क्या यह अचरजकी बात नहीं है? फिर मैं नहीं जानता कि सेवा करनेवालेको ७५ रुपये मासिक वेतन मिलता है या कितना वेतन मिलता है। लेकिन मुझे इतना मालूम है कि कुछ सेवकोंको इतना वेतन मिलता है जरूर। किन्तु हमें इस कारण ईर्ष्या क्यों हो? सभी सेवक धनी नहीं होते। जो अपना सारा वक्त जनताको देते हैं, उन्हें वेतन लेनेका अधिकार है। प्रश्न सिर्फ यही पूछने लायक है कि उन्हें जितना मिलता है, क्या उन्हें उतनेकी जरूरत है? साधारण आदमीको इतने रुपयेकी जरूरत हो सकती है या नहीं? वही आदमी क्या अन्यत्र इतना रुपया कमा सकेगा? और अन्तमें, वह आदमी ईमानदार है या नहीं और जनताको उसकी सेवाकी जरूरत है या नहीं, यदि इन सारे प्रश्नोंके उत्तर सन्तोषजनक हों तो सेवा करनवालेको हर मास ७५ रुपये मिलें, यह कोई गुनाह नहीं। जनताको तो हजारों सेवक चाहिए। ये सबके-सब अवैतनिक तो नहीं हो सकते।

"लालच"

वही भाई आगे लिखते हैं: [१]

प्रथम तो "लालच" शब्दका प्रयोग अच्छे अर्थमें किया गया था। कम कीमतपर पूनियाँ देकर गरीबोंको खादी पहननेका लालच देने में मुझे तो कोई दोष नहीं दिखता। मैं स्वराज्यका सौदागर हूँ; खादीका भक्त हूँ; लोगोंको खादी पहननेके लिए सभी तरहके उचित लालच देना मेरा धर्म है। मेरी दृष्टिसे, यही चीज हमें स्वराज्य दिला सकती है। कुछ देशोंमें राज्योंने कुछ विशेष वस्तुओंकी खपत बढ़ानेके लिए लोगोंको आर्थिक सहायता दी है। क्या उन्होंने ऐसा करके कुछ अनुचित किया है? जर्मनीकी सरकारने दूसरे देशोंमें अपनी चीनीकी खपत बढ़ानेके लिए अपने चीनीके उद्योगको बहुत सहायता दी है। उससे उसे लाभ ही तो हुआ। अतः हमारे देशके नये उद्योगोंको या तो सरकारसे मदद मिलनी चाहिए या जनतासे। जनता खादीकी जो मदद कर रही है, वह कोई बहुत बड़ी मदद है, ऐसा मैं नहीं मानता। अभी तो यह मदद आरम्भ ही हुई है। इसका परिणाम शुभ ही होगा। खादीको लागत मूल्यसे कम दामपर बेचनेमें भी कोई बुराई नहीं। फिर ऐसी खादी ज्यादा नहीं है। हमें तो लाखोंकी नहीं, बल्कि करोड़ोंकी खादी तैयार करनी है। अब यह सवाल बेशक पूछा जा सकता है कि तब खादीके व्यापारियोंका क्या होगा। लेकिन ऐसे व्यापारियोंकी संख्या तो ऊँगलियोंपर गिनने लायक भी नहीं है। अन्तमें, सम्भव है, खादीका व्यापार परिषद्के ही हाथोंमें चला जाये। अभी तो ऐसा समय आया नहीं। परिषद्की योजनाके अनुसार तो सिर्फ कातनेवालोंको ही लाभ होगा। इसलिए फिलहाल यह सवाल नहीं उठता कि व्यापारियोंका क्या होगा।

 
  1. यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने गांधीजीसे पूछा था कि क्या अपने भाषणमें आपने लोगोंको खादी पहननेके लिए लालच देनेका समर्थन करके ठीक किया है।