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हलके चाहे जहाँ ले जाया जा सकता है। इस समय मुझे ऐसी एक-दो शालाओंकी याद आ रही है जिनमें सीटी बजते ही तीन मिनटके भीतर नौ-नौ सौ लड़के बिना किसी शोर-गुलके इकट्ठे हो गये और अपना काम पूरा करके फिर तीन मिनटमें ही अपनी-अपनी कक्षाओंमें इस तरह वापस चले गये मानो वे उनमें से निकल कर आये ही न थे।

मेरे विचारसे पोशाकमें खादीका निकर या धोती, कुरता और टोपी हों तो काफी है। अगर ये धुले हए हों और इन्हें हजारों बालक पहने हों तो एक भव्य दृश्य उपस्थित होता है। बहुत-से बालक इस पोशाकके अलावा वास्कट या आधा अथवा पूरा कोट पहन लेते हैं। इस तरह वे दूसरे लड़कोंके बीच बिलकुल अलग-थलग दिखने लगते हैं। उन्हें इस दयनीय स्थितिसे उबारना चाहिए।

मैं जानता हूँ कि स्वच्छता, सुघड़ता, कवायद आदिकी शिक्षासे ही बालकोंकी सारी शिक्षा पूरी नहीं हो जाती। उन्हें चारित्र्य बल मिलना चाहिए; उन्हें अक्षरज्ञान होना चाहिए। लेकिन हम उनकी शिक्षाके किसी भी अंगकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें उनकी शिक्षाके शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक, तीनों अंगोंको सम्भालना चाहिए। इनमें से जो भी अंग कच्चा रह जायेगा, वह बालकके लिए भविष्यमें दुःखदायी होगा और उसके कारण बालक जब बड़ा होकर त्रुटियोंका अनुभव करेगा, तो सन्ताप करेगा। इतना ही नहीं, समाजपर भी उसका बहुत बुरा असर होगा। आज भी हम अपनी शिक्षाकी खामियोंका फल भोग रहे हैं। हममें गन्दगी इतनी अधिक है कि उसीके कारण हम प्लेग आदि रोगोंको जड़-मूलसे नष्ट नहीं कर पा रहे है। शहरों में तो स्वच्छ जीवन बिताना लगभग असम्भव हो गया है। हम नागरिक जीवनके बुनियादी तत्वोंको भी नहीं जानते और जो जानते हैं, वे उनका पालन नहीं करते।

एक ऋषिकुल

एक ऋषिकुलके आचार्य अस्पृश्यतामें विश्वास नहीं रखते। लेकिन उन्हें भय है कि यदि वे अपनी संस्थामें से अस्पृश्यताको निकाल देंगे तो संस्था बन्द हो जायेगी, क्योंकि उस हालतमें कोई भी उनकी सहायता नहीं करेगा। इसलिए वे अस्पृश्यताको दोष मानते हुए भी प्रश्रय देते हैं। मेरी तुच्छ सम्मतिमें तो ऐसा ऋषिकुल अस्तित्वमें ही न आये और आये तो उसका नाश हो जाये, यही श्रेयस्कर है। अस्पृश्यता पाप है, यह जानते हुए भी कोई मनुष्य उससे चिपटा रहकर ऋषिकुल चलाये, यह कैसे हो सकता है? जहाँ आचार्यके आचार और विचारमें ही इतनी विसंगति हो, वहाँ बालकोंपर बुरा असर न पड़े, यह कैसे सम्भव है? जो शिक्षक अपने विचारके अनुसार चलनेके लिए तैयार न हो, अगर शिक्षकका धन्धा छोड़कर किसी और साधनसे अपनी आजीविका कमाये तो अच्छा हो। फिर भी हम तो अक्सर यही देखते हैं कि जो मनुष्य और किसी धन्धेके लायक नहीं होता वह शिक्षक बन बैठता है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २६-४-१९२५
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