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३१०. पत्र: वसुमती पण्डितको


तिथल
वैशाख सुदी ३ [२६ अप्रैल, १९२५][१]

चि० वसुमती,

मुझे तुम्हारा पत्र मिल गया है। अब तो महादेव तुमसे मिल चुका होगा। उसने मुझसे कोई बात नहीं की है। किन्तु तुमने अपने व्यापारके सम्बन्धमें जो कहा था उससे मैं कुछ समझ गया। अब तुम्हारे पत्रसे सब बात स्पष्ट हो जाती है। तुम्हारे व्यापारका चाहे जो हो, इससे तुम्हें तनिक भी घबरानेकी जरूरत नहीं है। पैसा तो आज है, कल नहीं है। तुमने तो बहुत धन दिया है। अब यदि काल उस धनको ले जाये तो क्या हुआ? जिसके पास होता है वह देता है और उसीका जाता भी है। तुम्हारा स्थान मेरे साथ तो है ही। तुम अपने चरित्रके बलसे मेरी पुत्री बनी हो। चरित्र-जैसी वस्तु न दी जा सकती है, न ली जा सकती है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम बिलकुल निर्भय और निश्चिन्त रहो। जब मेरी सलाहकी जरूरत हो तो लेना। मैं बाहर होऊँ और महादेव भी बाहर हो और तुम्हें कुछ पूछना हो तो पत्र लिखकर अवश्य पूछ लेना। देवदाससे तो मिल ही सकती हो। वह समझदार है और ठीक सलाह दे सकता है। आशा है मुझे कुछ भी लिखने में तुम संकोच नहीं करोगी।

अपने स्वास्थ्यका पूरा ध्यान रखना। जरूरत जान पड़े तो मैं जबतक बम्बईमें हूँ, इस बीच वहाँ आ जाना। यह पत्र कल सोमवारको तो पहुँच ही जायेगा। मैं मंगल और बुधको बम्बईमें रहूँगा। मैं सवारी गाड़ीसे बम्बई जाऊँगा।

बापूके आशीर्वाद

मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५४६) से।

सौजन्य: वसुमती पण्डित

 
  1. गांधीजी तिथलमें २४ से २७ तक रहे, वे २८ और २९ को वम्बईमें थे। फिर वे बंगालके लिए रवाना हो गये थे।